मंगलवार, फ़रवरी 02, 2010
गणतंत्र दिवस, 2010
मंगलवार, जनवरी 19, 2010
गीत
कल वसंत पंचमी है.
हम कलमकारों के लिये सबसे बडा दिन.
माता सरस्वती की पूजा और साथ ही
महाप्राण निराला का जन्म दिवस.
सभी मित्रों और ब्लागर्स भाइयों को
वसंत पर्व की आत्मिक शुभकामनाओं के साथ
अपनी पूजा में ऍक गीत के साथ
आप सबको साझा करना चाहता हूँ॑.
गीत उस समय का है जब लय से जान पहचान में
सारा दिन और आधी रात गुनगुनाते ही बीत जाती थी.
हालांकि हमारे यहां आज कल मौसम गीत जैसा नहीं है
लेकिन फिर भी...........
गीत
आ गया है नव वसंत
जिस तरफ उठे नजर
उसी तरफ बहार है.
हर तरफ वसंत की
शराब का खुमार है.
झूमता गगन पवन औ
झूमते हैं दिग दिगन्त.
आ गया है नव वसंत.
वसुन्धरा मगन मगन.
नव वधू सी शर्म से
झुके झुके नयन नयन.
आ चुके हैं ब्याहने को
आज कामदेव कन्त.
आ गया है नव वसंत.
द्वार द्वार फाग राग
ढोलकें धुनक रहीं.
बाग बाग डाल डाल
कोयलें कुहक रहीं.
विश्व की प्रसन्नता का
आज आदि है न अन्त.
आ गया है नव वसंत
गुरुवार, दिसंबर 10, 2009
कश्मीर में तीन दिन-------आखिरी किश्त-
44,गौरी कुंज गैलाना रोड आगरा-7
मो09219539366
शनिवार, नवंबर 14, 2009
और आगे की
रविवार, नवंबर 08, 2009
और अब आगे की-
पहले कुछ फोटो
मंगलवार, अक्तूबर 27, 2009
कश्मीर में तीन दिन भाग-3
हमें बेसब्री से प्रसिद्ध जवाहर सुरंग का इंतज़ार था. एशिया की सबसे लंबी सडक सुरंग के बारे में बचपन से ही सुन रखा था. कई जगह बीच में सडक पर shed बने हुथे थे. मैंने उनके बारे में शाहजहां भाईजान से पूछा तो उन्होंने बताया कि ये Avalanch zone है. ठंड में यहां पर ऊंची पहाडियों से बर्फ़ लुढकती हुई आती है और जिससे दुर्घटना हो जाती है. ऐसी जगहों को चिह्नित करके वहां ये शेड्स बना दिये गये हैं, जिससे यात्री और वाहन सुरक्षित रहें. आगे बढते हुए हम लोग जवाहर सुरंग के प्रवेश द्वार पर आ पहुंचे. पीर पंजाल की पहाडियों में बनी हुई जवाहर सुरंग वास्तव में जम्मू एवं कश्मीर के बीच सीमा का काम करती है. 2.5 किमी0 लम्बी जवाहर सुरंग के आस-पास सेना के अत्यधिक जवानों की उपस्थिति यह दर्शा रही थी कि यह सुरंग कितनी महत्वपूर्ण है. जवाहर सुरंग से बाहर आते ही एक और आश्चर्य मेरा इंतज़ार कर रहा था. मेरी सोच थी कि कश्मीर की सडकें पर्वतीय सडकों की तरह घुमावदार होंगी, लेकिन यहां तो सपाट और सीधी सडक बिलकुल मैदानी इलाकों जैसी. जवाहर सुरंग से कश्मीर मात्र 80किमी0 दूर रह गया था. शाम के पांच बज गये थे लेकिन सीधी-सपाट सडक होने की वज़ह से हम तेज़ी से अपनी मंज़िल की ओर बढ रहे थे. जवाहर सुरंग से श्रीनगर तक हर गांव में 10-12 और रास्ते में थोडी-थोडी दूर पर 4से5 फ़ौजी जवानों की मौज़ूदगी वातावरण में ख़ौफ़ पैदा कर रही थी. श्रीनगर से थोडा पहले पामपुर क़स्बा केसर की खेती के लिये मशहूर है. देश-विदेश तक यहां से केसर की सप्लाई ख़ूब होती है. हम लोगों ने भी असली केसर लेने की इच्छा भाईजान से व्यक्त की, लेकिन कम से कम 2800रू0प्रति 10 ग्राम के दाम सुनकर इरादा बदल दिया. लगभग 7बजे हम लोग श्रीनगर के बाहरी इलाके में पहुंच चुके थे. यहां भी आगरा जैसा जाम सडकों पर पूरी शिद्दत से उपस्थित था. वाकई पूरा हिन्दुस्तान इस मामले में एक है. शाहजहां भाईजान से मित्रता और प्रगाढ हो चुकी थी. उनका घर हालांकि श्रीनगर में घुसते ही था लेकिन वो हमें डल झील के किनारे छोडकर और अपने परिचित की हाऊसबोट भी बुक करवाकर आये.किराया भी बेहद मुफ़ीद मात्र 700रू0 प्रतिदिन. हाऊस बोट के मालिक मो0एज़ाज से रात्रि का भोजन हमने बोट पर ही मंगा लिया और एजाज भाई को भी अपने साथ ही बैठा लिया. भोजन करते हुए एजाज भाई से बातचीत चलती रही. एजाज भाई ने बताया कि पूरी डल झील में लगभग 700 हाऊसबोट हैं. हमारा ये काम पीढियों पुराना है. मेरे दादा और परदादा यही काम करते थे. एक हाऊसबोट की उम्र तक़रीबन 50से60 साल होती है. कुछ संवेदनशील मुद्दों पर भी हमने उनके मन की बात जाननी चाही क्योंकि कश्मीर के बारे में जानने बहुत इच्छा थी हमारी. एजाज भाई ने बताया कि 'सर आज का कश्मीर तो बेहद खुशहाल है. पिछले 9-10 सालों में बहुत कुछ बदल गया है. सन 2000 के पहले तो यहां के अधिकतर होटलों पर फ़ौजों का क़ब्ज़ा था. शाम 6 बजते ही कर्फ़्यू लग जाता था. उस समय आतंकी और फ़ौज़ यहां के लोगों पर बहुत ज़ुल्म करते थे.' एजाज भाई ने हलांकि स्थानीय युवाओं के आंतकी बनने से इंकार तो नहीं किया लेकिन कहा कि,'सर ये लोग भी क्या करें . आप ही बतायें कि सिवाय पर्टयन के यहां के लोगों पर रोज़गार है? आतंकवाद का मुख्य कारण ही यहां की गरीबी है. यहां श्रीनगर शहर में लोगों पर फिर भी काम है लेकिन यहां के गांवों में बेहद गरीबी है. पाकिस्तान की शह, पैसों का लालच और कुछ हद तक फ़ौज़ों की दमनकारी नीतियां युवकों को आतंकी बनने पर मज़बूर कर देती हैं. महज़ 8से 10हज़ार रू0 के लिये लोग आतंकी बनने के लिये तैयार थे. फ़ौज़ में भ्रष्टाचार भी इसकी मुख्य वज़ह है. नहें तो आप ही बतायें 10से 15 लाख फ़ौज़, जिसमें बार्डर पर बी0एस0एफ0, उसके पीछे इंडियन आर्मी और अन्दर की सुरक्षा सी0आर0पी0एफ0 व जम्मू-कश्मीर पुलिस के पास हो तो बिना भ्रष्टाचार के क्या ये संभव है कि बार्डर पार से आतंकी आ जायें. सर मेरे कुछ रिश्तेदार बार्डर पार पाक अधिकृत कश्मीर में भी हैं. वो तो हमसे 50साल पीछे चल रहे हैं. वहां के हालात तो बद से बदतर हैं.' स्थानीय नेताओं से भी एजाज भाई ख़ासे नाराज़ थे. उनका कहना था कि, 'सारी समस्याओं के पीछे कहीं न कहीं ये नेता लोग भी हैं. अपनी दुकान चलाने के लिये ये कुछ भी कर सकते जाते हैं. अगर महीने में लाल चौक पर कोई घटना न घटे तो कोई न कोई नेता खुद ही साज़िश रच लेता है. सब मिले हुए हैं.' मीडुया वालों से भी उन्हें शिकायत थी कि, 'पता नहीं क्या दिखाते और छापते रहते हैं. सर आप ही बतायें क्या आपको लगता है कि अब कश्मेर कहीं से भी अशांत है. मुझे उसकी बातें सही लगी कि गरीबी और लाचारी ही अपने पीछे आतंकवाद और नक्सलवाद लेकर आती हैं. हमने एजाज भाई स्वादिष्ट खाने के लिये धन्यवाद दिया और सोने के लिये विदा मांगी.........
क्रमश ...........
रविवार, अक्तूबर 25, 2009
कश्मीर में तीन दिन भाग-2
सफ़र की शुरूआत होने के साथ-साथ बातचीत का दौर भी शुरू हो गया. सडक पर लगे मील के पत्थर पर देखा तो कश्मीर अभी 300किमी0 दूर था. जम्मू शहर पार करते ही पहाडी रास्ता शुरू हो गया. मौसम बेहद खुशनुमा था. थोडी देर बाद ही चिनाब हमारे साथ-साथ चलने लगी. मैं इस बात से बेहद रोमांचित था कि मैं उस महान सिंधु नदी से भी ज़्यादा दूर नहीं था जहां मोहनजोदडो जैसी सभ्यता विकसित हुई थी. बातचीत में सामने आया कि गाडी के ड्राइवर ही गाडी के मालिक हैं शाहजहां नाम था उनका. हम उम्र ही थे, लगभग उंतीस-तीस के क़रीब. बेहद ज़िन्दादिल और यारबास किस्म के व्यक्ति लगे. थोडी देर में ही शाहजहां, शाहजहां भाईजान की भूमिका में रूपांतरित हो चुके थे. एक बडा मज़ेदार किस्सा उन्होंने बताया कि क्लास में जब भी ये पूछा जाता था कि ताज़महल किसने बनाया था तो हमेशा मेरा जवाब होता था कि मैंने. अजय भी अपनी कश्मीर की जानकारियों के साथ बातचीत में शामिल था. मैं उसकी जानकारियों से हैरान था. समूचे उत्तर भारत के पहाडी ,रास्ते पर्यटन के अड्डे, रुकने और खाने के सस्ते से सस्ते और मंहगे से मंहगे स्थान. गली नुक्कड के प्रसिद्ध खोमचे वाले. सब कुछ.सारे रास्ते भर उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश और हिमांचल की जानकारियों का ख़ज़ाना भरते रहे. रासते में हमने एक क़स्बे में छोटी सी दुकान पर चाय और पूडियां खायीं. शाहजहां भाई ने आगे रास्ते में एक मोड पर बताया कि वैष्णो देवी का मन्दिर यहां से ज़्यादा दूर नहीं है. मात्र 8किमी0 ही दूर है. लेकिन अफसोस समयाभाव कहिये या माता का बुलावा हम वहां नहीं जा सके. लगभग चार घंटे की यात्रा में हम आधी दूरी तय कर चुके थे. सामने दूर पहाडी पर निर्माण कार्य चल रहा था. शाहजहां भाई ने बताया कि ये विवादित बगलिहार परियोजना है. वहां एक ढाबे पर हमने कर रोकी पता चला कि वहां का राज़मा-चावल बहुत मशहूर है. दोपहर का भोजन हमने वहीं ग्रहण किया. ग्रहण क्या किया एक इतिहास का हिस्सा बने. जहां हम बैठे हुए थे ठीक उसके पीछे बगलिहार परियोजना का विहंगम दृश्य था. अद्भुत नज़ारा था. निर्माणाधीन बांध का सामने का विशाल हिस्सा धूप में चमक रहा था. बांध के पीछे चिनाब की विशाल जलराशि थी. मन था कि पूरा दिन वहीं गुज़ारा जाय. ख़ैर थोडी देर विश्राम कर आगे की यात्रा शुरू हुई. अब वैचारिक स्तर पर थोडा और खुलते हुए हमने कश्मीर पर शाहजहां भाई की राय जाननी चाही. ये जानकर बेहद आश्चर्य हुआ कि पाकिस्तान के प्रति उअनके मन में काफ़ी आक्रोश था. हालांकि पाक अधिकृत को बार-बार आज़ाद कश्मीर ही कहा उन्होंने. हमारे टोकने पर उन्होंने ख़ेद व्यक्त किया कि उनका वह मतलब नहीं था. उन्होंने बतया कि पाक अधिकृत कश्मीर की तुलना में यहां का जीवन स्तर बहुत उन्नत है. चिनाब के साथ-साथ हमारी यात्रा चलती रही. जैसे-जैसे हम आगे को बढते गये वातावरण की ख़ूबसूरती में इज़ाफ़ा होता गया. एक परिवर्तन और साफ दिखाये दिया कि जैसे-जैसे कश्मीर पास आता गया सडक के किनारे क़स्बों में हिन्दू और सिखों के स्थान पर मुसलमानों की आबादी में इज़ाफ़ा होता गया.
क्रमश:-
गुरुवार, अक्तूबर 22, 2009
यात्रा-1
बुधवार, अक्तूबर 07, 2009
ग़ज़ल
गुरुवार, अक्तूबर 01, 2009
रविवार, सितंबर 13, 2009
ग़ज़ल-12
पूरे सात वर्ष अवसाद में रहने के पश्चात इस वर्ष इस ग़ज़ल से मेरे साहित्यकार / ग़ज़लकार की नयी पारी शुरू हुई. अपनी बुनावट में साधारण होने के बावज़ूद मेरे लिये इस ग़ज़ल के इस रूप में बहुत माइने हैं.-
दुनिया से वाबस्ता हूं,
बच्चे हैं तो मैं, मैं हूं,
रविवार, सितंबर 06, 2009
ग़ज़ल-11
आज बहुत दिन के बाद ठीक से फुर्सत हुई है. एक अतिसाधारण (अतिसाधारण इसलिये क्योंकि इसे कभी किसी गोष्ठी में पढने की हिम्मत नहीं हुई) ग़ज़ल आप सबके स्नेह के लिये प्रस्तुत करता हूं-
ग़ज़ल
रविवार, अगस्त 23, 2009
दोहाकार---अशोक अंज़ुम
अशोक अंजुम साहित्य जगत के बहुचर्चित व्यक्तित्वों में से एक हैं. हिन्दी की साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के लगभग हर दूसरे-तीसरे अंक में उनकी उपस्थिति देखी जा सकती है. साहित्यिक मंचों के साथ-साथ रंगमंच के क्षेत्र में भी उनकी सक्रिय भागेदारी है. उनकी अब तक -'मेरी प्रिय ग़ज़लें', 'मुस्कानें हैं ऊपर-ऊपर', 'अशोक अंजुम की प्रतिनिधि ग़ज़लें', 'तुम्हरे लिये ग़ज़ल', 'जाल के अन्दर जाल मियां' (ग़ज़ल संग्रह); एक नदी प्यासी (गीत सग्रह); भानुमति का पिटारा', 'ख़ुल्लम ख़ुल्ला', 'दुग्गी चौके छ्क्के', अशोक अंजुम की हास्य-व्यंग्य कविताएं' (हास्य-व्यंग्य संग्रह) साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है. इसके अतिरिक्त पांच ग़ज़ल संग्रह, नौ हास्य-व्यंग्य संग्रह, छ: दोहा संकलन, दो लघुकथा संकलन तथा दो गीत संकलन अंजुम जी के संपादन में प्रकाशित हो चुके हैं. पिछले पन्द्रह वर्षों से 'प्रयास' साहित्यिक त्रैमासिकी का संपादन कर रहे हैं. संवेदना प्रकाशन के नाम से अपना प्रकाशन भी चलाते हैं. इस सबमें सबसे बडी बात ये कि ये सब वे एक बहुत छोटी जगह अलीगढ से लगभग पन्द्रह किलोमीटर दूर कासिमपुर नामक छोटे से कस्बे से करते हैं. कासिमपुर दो वज़हों से जाना जाता है-एक-अपने बिज़ली के पावरहाऊस के लिये दो- साहित्यिक पावर हाऊस अशोक अंजुम के लिये. अभी उनका दोहा संग्रह प्रकाशित हुआ है-'प्रिया तुम्हारा गांव'. आज मन है इसी दोहा संग्रह से अंजुम जी के कुछ दोहे आप सब सुधीजनों को पढवाने का. आप सब दोहे पढें और अपनी बेशकीमती राय से हमेशा की तरह अवश्य अवगत करायें. आप चाहें तो सीधे श्री अंजुम जी को उनके मोबाइल न0 91-09319478993 पर या उनके डाक के पते-ट्रक गेट कासिमपुर (अलीग़ढ) 202127 पर भी बधाई प्रेषित कर सकते हैं. तो अब दोहों का आनन्द लें-
शनिवार, अगस्त 15, 2009
ग़ज़ल-10
ग़ज़ल
रविवार, अगस्त 09, 2009
शेयर बाज़ार मेरी नज़र में.......
शनिवार, अगस्त 01, 2009
रविवार, जुलाई 26, 2009
कल रात डिस्कवरी चैनल पर डिस्कवर इंडिया कार्यक्रम देख रहा था. उसमें लद्दाख के निवासियों पर कार्यक्रम था, जिसमें एक परिवार दिखाया गया है जो पश्मीना बेचने के बाद एक भेड की दावत देता है. परिवार चूंकि बौद्धिस्ट है, जहां किसी भी प्रकार की हत्या को पाप माना जाता है सो वह भेड की हत्य के लिये गांव से एक लडके को बुलाता है. लडका रस्सी की सहायता से भेड को दम घोंटकर मारता है ताकि भेड को मरने में कम से कम कष्ट हो. भेड को मारने के बाद लडका उसकी खाल उतारता है, इसके बाद सावधानीपूर्वक आंतों को काटकर निकाल लेता है. तत्पश्चात आंतों में पानी भरकर और मुंह से फूंक मारकर आंतों को साफ करता है. भेड के सारे ख़ून को एक अलग बरतन में इकट्ठा कर लिया जाता है और उसमें जौ का आटा मिलाकर पेस्ट को आंतों में भर लिया जाता है. भरी आंतों को बरतन में पानी डालकर उबाल लिया जाताअ है और पूरा परिवार भेड की दावत उडाता है. माइं जानता और मानता हूं कि सारी दुनिया शाकाहारी नहीं है लेकिन मैं ये सोच रहा हूं कि क्या मैं उस परिवार का सदस्य होने के बाद भी ग़ज़लें लिख रहा होता? इस समय मुझे अपने मित्र कमल किशोर भावुक का ये शेर याद आ रहा है आप भी देखें-
मुस्कराकर पंख नौचे क्या अदा सैय्याद की,
हो गयी संवेदना आहत न जाने हो गया क्या.
रविवार, जुलाई 19, 2009
दोहे
कई दिन से उधेडबुन में हूं. दरअसल ब्लाग ग़ज़लों का है और मन बहुत कुछ कहने को करता है. सो निर्णय किया है कि आगे से ब्लाग का कायान्तरण करते हुए ब्लाग को सारे बन्धनों से मुक्त कर दिया जाये, यानि कि अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी. हालांकि विचारों के लिये एक नया ब्लाग बना सकता था लेकिन मामला कुछ जम नहीं रहा. एक साथ कई ब्लाग पर काम करना मेरी सीमित सामर्थ्य से बाहर है. मैं इतने विशाल हिन्दी ब्लाग जगत का हिस्सा बनकर ही अपने को गौरवान्वित महसूस करता हूं. तो नये रूप में प्रवेश करते हुए कुछ दोहों से शुरूआत करता हूं अगर किसी लायक लगें तो हमेशा की तरह अपना बेशकीमती स्नेह अवश्य प्रदान करें---
सदैव अपनों का-------------संजीव गौतम.
1-
कल आंगन में रात भर, रोया बूढा नीम.
दो हिस्सों में देखकर, घर-आंगन तकसीम.
2-
शहरों में जा गुम हुआ, गांवों का सुख-नेह.
गांवों को भी हो गया, शहरों का मधुमेह.
3-
गोदी में सूरज लिये, मन में गूंगी चीख़.
दोनों हाथ पसारकर, चन्दा मांगे भीख़.
4-
सोने, चांदी सी कभी, तांबे जैसी धूप.
दिन भर घूमे गांव में, बदल-बदलकर रूप.
5-
ज़िन्दा रहने के लिये, करते हैं सौ यत्न.
माटी से पैदा हुए, ये माटी के रत्न.
6-
अपनी-अपनी बुद्धि है, अपनी-अपनी सोच.
मिट्टी में जितनी नमी, उतनी उसमें लोच.
7-
नीले बादल जिस तरफ, उधर गांव का छोर.
गर्म हवाएं इस तरफ, महानगर इस ओर.
बुधवार, जुलाई 01, 2009
ग़ज़ल
शनिवार, जून 20, 2009
शनिवार, मई 30, 2009
ग़ज़ल
वही हालात हैं बदला हुआ कुछ भी नहीं है.
वही चेहरे वही किस्से नया कुछ भी नहीं है.
पुराने लोग हैं कुछ जो नज़र आते हैं वरना,
नयी तहज़ीब में तहज़ीब सा कुछ भी नहीं है.
बहुत बेचैन होता हूँ मैं जब भी सोचता हूँ,
यहाँ इस मुल्क़ में अब मुल्क़ सा कुछ भी नहीं है.
अगर सोचो तो बेशक दूरियाँ ही दूरियाँ हैं,
अगर ठानो तो इतना फ़ासला कुछ भी नहीं है.
इसे मुश्किल तो हम ही मान बैठे हैं नहीं तो,
अभी भी झूठ को ललकारना कुछ भी नहीं है.
रविवार, मई 10, 2009
कभी तो............ग़ज़ल
कभी तो रौशनी होगी हमारे भी मकानों में.
कभी तो नाप लेंगे दूरियाँ ये आसमानों की,
परिन्दों का यकीं क़ायम तो रहने दो उड़ानों में.
अजब हैं माइने इस दौर की गूँगी तरक्की के,
मशीनी लोग ढाले जा रहे हैं कारख़ानों में.
मिला करते हैं हीरे कोयलों की ही खदानों में.
भले ही है समय बाक़ी बग़ावत में अभी लेकिन,
असर होने लगा है चीख़ने का बेज़ुबानों में.
नज़रअंदाज़ ये दुनिया करेगी कब तलक हमको,
हमारा भी कभी तो ज़िक्र होगा दास्तानों में.
सोमवार, अप्रैल 13, 2009
ग़ज़ल
लकीरों को मिटाना चाहता हूँ।
हदों के पार जाना चाहता हूँ।
विरासत में मिले हैं चन्द सपने,
उन्हें सूरज दिखाना चाहता हूँ।
सुफल लगते हैं मेहनत के शजर पर,
ये बच्चों को बताना चाहता हूँ।
बहुत ख़ुश दीखती हो तुम कि जिसमें,
वही किस्सा सुनाना चाहता हूँ।
मेरी ग़ज़लो मैं अपनी मौत के दिन,
तुम्हें ही गुनगुनाना चाहता हूँ।
बुधवार, मार्च 18, 2009
ग़ज़ल
जाने कितने ख़तरे सर पर रहते हैं।
मेरे भीतर कोई मुझसे पूछे है,
मेरे भीतर क्यों इतने डर रहते हैं।
जिन हाथों में कल तक फूल अमन के थे,
आज उन्हीं हाथों में पत्थर रहते हैं।
बादल, बारिश, नदिया, तारे, जुगनू, गुल,
सारे मंज़र मेरे भीतर रहते हैं।
मेरे चुप रहने कि वज़हें पूछो मत,
मेरे भीतर कई समन्दर रहते हैं।
मंगलवार, मार्च 17, 2009
ग़ज़ल
मेरे ईश्वर मेरे बच्चों को हँसने दे।
इशारे पर चला आया यहाँ तक मैं,
यहाँ से अब कहाँ जाऊँ इशारे दे।
विरासत में मिलीं हैं ख़ुशबुऍ मुझको,
ये दौलत तू मुझे यूँ ही लुटाने दे।
मैं ख़ुश हूँ इस गरीबी मैं, फकीरी मैं,
मैं जैसा हूँ, मुझे वैसा ही रहने दे।
उजालों के समर्थन की दे ताकत तू,
अँधेरों से उसी ताकत से लड़ने दे।
सोमवार, जून 05, 2006
ग़ज़ल
क्यूँ निभाता है वो अक्सर इस तरह से दोस्ती.
मंजिलों की ओर झूठे रास्तों से जाऊँ क्यों,
मंजिलों की ओर सच्चे रास्ते हैं और भी.
क्या वजह है सिफ॔ शीशे के घरों तक ही गई,
आज भी कच्चे घरों से दूर क्यों है रोशनी.
क्या व्यवस्था है नियम है ये कहाँ का मुल्क में,
सत्य को हर हाल में करनी पडेगी खुदकुशी.
रोशनी बेशक न हो चारों तरफ मेरे मगर,
मैं अँधेरों का समथ॔न कर न सकता हूँ कभी.
ग़ज़ल
घर में रहती हैं चुप्पियाँ अब तो.
हमने दुनिया से दोस्ती ली ली,
हमसे रूठी हैं नेकियाँ अब तो.
उफ ये कितना डरावना मंज़र,
बोझ लगती हैं बेटियाँ अब तो.
खो गये प्यार,दोस्ती-रिश्ते,
रह गयी हैं कहानियाँ अब तो.
अब न घोलो जहर हवाओं में,
हो चुकीं जर्द पत्तियाँ अब तो.
सिर्फ अपने दुखों को जाने हैं,
ये सियासत की कुर्सियाँ अब तो.
सबकी आँखों में सिर्फ गुस्सा है,
और हाथों में तख्तियाँ अब तो.
ग़ज़ल
मगर लब पर दुआ है.
धुआँ है आस्माँ पर,
ज़मीं पर कुछ हुआ है.
न ज़िन्दा हैं न मुर्दा,
ये किसकी बद्दुआ है.
सिमटकर रह गया हूँ,
मुझे किसने छुआ है.
सितमग़र भी रहें खुश,
फ़क़ीरों की दुआ है.
ग़ज़ल
मुश्किलों से विसाल करते तो.
ज़िन्दगी और भी सरल होती,
इसको थोड़ा मुहाल करते तो.
मंज़िलों के निशाँ बता देते,
रास्तों से सवाल करते तो.
हार जाते घने अँधेरे भी,
कोशिशों को मशाल करते तो.
यूँ न होते उसूल बेइज्ज़त,
इनकी तुम देखभाल करते तो.