बुधवार, मार्च 18, 2009

ग़ज़ल



जाने कितने ख़तरे सर पर रहते हैं।
हम अपने ही घर में डर कर रहते हैं।


मेरे भीतर कोई मुझसे पूछे है,
मेरे भीतर क्यों इतने डर रहते हैं।


जिन हाथों में कल तक फूल अमन के थे,
आज उन्हीं हाथों में पत्थर रहते हैं।


बादल, बारिश, नदिया, तारे, जुगनू, गुल,
सारे मंज़र मेरे भीतर रहते हैं।


मेरे चुप रहने कि वज़हें पूछो मत,
मेरे भीतर कई समन्दर रहते हैं।

मंगलवार, मार्च 17, 2009

ग़ज़ल

सज़ा मेरी ख़ताओं की मुझे दे दे।
मेरे ईश्वर मेरे बच्चों को हँसने दे।


इशारे पर चला आया यहाँ तक मैं,
यहाँ से अब कहाँ जाऊँ इशारे दे।


विरासत में मिलीं हैं ख़ुशबुऍ मुझको,
ये दौलत तू मुझे यूँ ही लुटाने दे।


मैं ख़ुश हूँ इस गरीबी मैं, फकीरी मैं,
मैं जैसा हूँ, मुझे वैसा ही रहने दे।


उजालों के समर्थन की दे ताकत तू,
अँधेरों से उसी ताकत से लड़ने दे।