सोमवार, जून 05, 2006

ग़ज़ल

दुश्मनों के साथ है वो और मेरे साथ भी.
क्यूँ निभाता है वो अक्सर इस तरह से दोस्ती.


मंजिलों की ओर झूठे रास्तों से जाऊँ क्यों,
मंजिलों की ओर सच्चे रास्ते हैं और भी.

क्या वजह है सिफ॔ शीशे के घरों तक ही गई,
आज भी कच्चे घरों से दूर क्यों है रोशनी.

क्या व्यवस्था है नियम है ये कहाँ का मुल्क में,
सत्य को हर हाल में करनी पडेगी खुदकुशी.

रोशनी बेशक न हो चारों तरफ मेरे मगर,
मैं अँधेरों का समथ॔न कर न सकता हूँ कभी.

ग़ज़ल

बन्द रहती हैं खिड़कियाँ अब तो.
घर में रहती हैं चुप्पियाँ अब तो.


हमने दुनिया से दोस्ती ली ली,
हमसे रूठी हैं नेकियाँ अब तो.


उफ ये कितना डरावना मंज़र,
बोझ लगती हैं बेटियाँ अब तो.

खो गये प्यार,दोस्ती-रिश्ते,
रह गयी हैं कहानियाँ अब तो.

अब न घोलो जहर हवाओं में,
हो चुकीं जर्द पत्तियाँ अब तो.

सिर्फ अपने दुखों को जाने हैं,
ये सियासत की कुर्सियाँ अब तो.

सबकी आँखों में सिर्फ गुस्सा है,
और हाथों में तख्तियाँ अब तो.

ग़ज़ल

जिग़र का ख़ूँ हुआ है.
मगर लब पर दुआ है.


धुआँ है आस्माँ पर,
ज़मीं पर कुछ हुआ है.

न ज़िन्दा हैं न मुर्दा,
ये किसकी बद्दुआ है.

सिमटकर रह गया हूँ,
मुझे किसने छुआ है.

सितमग़र भी रहें खुश,
फ़क़ीरों की दुआ है.

ग़ज़ल

तुम ज़रा यूँ ख़याल करते तो.
मुश्किलों से विसाल करते तो.


ज़िन्दगी और भी सरल होती,
इसको थोड़ा मुहाल करते तो.

मंज़िलों के निशाँ बता देते,
रास्तों से सवाल करते तो.

हार जाते घने अँधेरे भी,
कोशिशों को मशाल करते तो.

यूँ न होते उसूल बेइज्ज़त,
इनकी तुम देखभाल करते तो.