जिग़र का ख़ूँ हुआ है.
मगर लब पर दुआ है.
धुआँ है आस्माँ पर,
ज़मीं पर कुछ हुआ है.
न ज़िन्दा हैं न मुर्दा,
ये किसकी बद्दुआ है.
सिमटकर रह गया हूँ,
मुझे किसने छुआ है.
सितमग़र भी रहें खुश,
फ़क़ीरों की दुआ है.
सोमवार, जून 05, 2006
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1 टिप्पणी:
संजीव जी, इतने छोटे बहर में क्या कमल कि गज़ब कि ग़ज़ल लिखी है, पढ़कर मन खुश हो गया. सारे शेर लाजवाब हैं.
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