सोमवार, जून 05, 2006

ग़ज़ल

बन्द रहती हैं खिड़कियाँ अब तो.
घर में रहती हैं चुप्पियाँ अब तो.


हमने दुनिया से दोस्ती ली ली,
हमसे रूठी हैं नेकियाँ अब तो.


उफ ये कितना डरावना मंज़र,
बोझ लगती हैं बेटियाँ अब तो.

खो गये प्यार,दोस्ती-रिश्ते,
रह गयी हैं कहानियाँ अब तो.

अब न घोलो जहर हवाओं में,
हो चुकीं जर्द पत्तियाँ अब तो.

सिर्फ अपने दुखों को जाने हैं,
ये सियासत की कुर्सियाँ अब तो.

सबकी आँखों में सिर्फ गुस्सा है,
और हाथों में तख्तियाँ अब तो.

1 टिप्पणी:

"अर्श" ने कहा…

sanjeev ji ye gazal khaasa behtarin likhee hai aapne... halaaki wajn me kahin kahin dosh lage magar isme tewar aapke mujhe janaab munnawar raana sahib waali lagi khaskar wo beti waali kahan... badhaayee..iskel iye...


arsh