मंगलवार, फ़रवरी 02, 2010

गणतंत्र दिवस, 2010

फतेहपुरसीकरी से लगभग तीन किमी. आगे भरतपुर रोड पर बायें हाथ पर हाईवे से लगा हुआ रसूलपुर गाँव है, अरावली श्रंखला की पहाडियों की तलहटी में. वहां के लोगों को नहीं मालूम कि किस धरोहर के साये में रहने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त है. दरअसल वे पहाडियां कभी हमारे पूर्वजों का घर रहीं है. उन पहाडियों में उनके बनाऍ हुऍ भित्तिचित्र आज भी उनकी कहानियां कहने के लिये मौजूद हैं. सन १९९५ में बी.ऍड. के दौरान हमारे सांस्क्रतिक टीचर श्री दयालन सर हम बीस बाईस शिष्यों को वहां के टूर पर ले गये थे. . मैंने अपनी डायरी में उन चित्रों को उकेरा था. वो डायरी मेरे पास आज भी सुरक्षित है. २६जनवरी २०१०, को गणतंत्र दिवस पर हम चारों मित्र यानि राहुल, हरिओम, कमल और मैंने उन्हीं पहाडियों के साथ बिताने का मन बनाया और दो मोटरसाइलों पर जा पहुँचे रसूलपुर. पुरानी स्थिति तो अब वहां नहीं है. खनन माफियाओं ने उस धरोहर को बहुत नुकसान पहुँचाया है. हालांकि पिछले आठ साल से खनन बन्द है, लेकिन हमें ऍक ही खोह सही सलामत मिली. पहाडियां ऍक तरफ से ढलवां लेकिन दूसरी तरफ से ऍकदम खडी हैं जैसे किसी नदी की धार ने उन्हें काट दिया हो. हो सकता है पुरा काल में वहाँ कोई नदी रही हो. इस संभावना को इससे भी बल मिलता है कि वहाँ सूखी नदी जैसा आज भी मौजूद है. सम्राट अकबर का बनवाया हुआ तेरहमोरी बाँध आज भी सही सलामत है. आगरा के इतिहासकार और मेरे पुराने सहपाठी डा. तरुण शर्मा के अनुसार उन भित्तिचित्रों के विषय में आजादी के समय से ही जानकारी है और गजेटियर में उनका प्रकाशन भी हो चुका है. खैर पुरानी डायरी से और अब के चित्रों के साथ आज की पोस्ट और अगली बार फतेहपुरसीकरी के साथ कुछ सैर.....























मंगलवार, जनवरी 19, 2010

गीत




कल
वसंत पंचमी है.
हम कलमकारों के लिये सबसे बडा दिन.
माता सरस्वती की पूजा और साथ ही
महाप्राण निराला का जन्म दिवस.
सभी मित्रों और ब्लागर्स भाइयों को
वसंत पर्व की आत्मिक शुभकामनाओं के साथ
अपनी पूजा में ऍक गीत के साथ
आप सबको साझा करना चाहता हूँ॑.
गीत उस समय का है जब लय से जान पहचान में
सारा दिन और आधी रात गुनगुनाते ही बीत जाती थी.
हालांकि हमारे यहां आज कल मौसम गीत जैसा नहीं है
लेकिन फिर भी...........

गीत
आ गया है नव वसंत
जिस तरफ उठे नजर
उसी तरफ बहार है.
हर तरफ वसंत की
शराब का खुमार है.
झूमता गगन पवन औ
झूमते हैं दिग दिगन्त.
आ गया है नव वसंत.
.
मखमली वसन पहन
वसुन्धरा मगन मगन.
नव वधू सी शर्म से
झुके झुके नयन नयन.
आ चुके हैं ब्याहने को
आज कामदेव कन्त.
आ गया है नव वसंत.
.
द्वार द्वार फाग राग
ढोलकें धुनक रहीं.
बाग बाग डाल डाल
कोयलें कुहक रहीं.
विश्व की प्रसन्नता का
आज आदि है न अन्त.
आ गया है नव वसंत

गुरुवार, दिसंबर 10, 2009

कश्मीर में तीन दिन-------आखिरी किश्त-

तमाम किंतु-परंतु के पश्चात इस यात्रा संस्मरण की आखिरी कडी प्रस्तुत है. इस संस्मरण के बहाने भाई नवनीत का लेखक के रूप में अवतरण हुआ है. उम्मीद है उनके इस रूप के दर्शन आगे भी होंगे----
------जब हम शिकारा से भ्रमण कर रहे थे उस समय सूर्यास्त का समय था. इस समय डल झील के आस पास का द्रृश्य बेहद सुहाना था. डल झील के बीच-बीच में पानी के ऊपर तैरते हुए खेत रोमांचित कर रहे थे. कश्मीर में उस समय शादियों का मौसम था. शादियों के कार्यक्रम के लिये सजे-धजे हाऊस बोट, शिकारे और शृंगार की हुई कश्मीरी युवतियां, इस सबके सामने तो अपने यहां की शादियों की रौनक कुछ भी नहीं है. शिकारे के मालिक मो0अफजल ने शिकारा कुछ हैण्डीक्राफ्ट्स की दुकान के पास लगा दिया और आग्रह किया कि आप कश्मीर आये हैं तो कुछ हैण्डीक्राफ्ट्स का सामान ज़रूर ले जायें. आगरा का निवासी होने के कारण उसका मनोभाव तो समझ में आ रहा था लेकिन हमने सोचा कि लाओ देख तो लेते हैं. सबसे पहले एक कपडे की दुकान में प्रवेश किया. तमाम तरह के शाल,जैकेट देखने पर हकीकत यह थी कि कुछ चीज़ों को छोडकर बाकी सारे कपडे लुधियाना मेड थे कश्मीर के नाम पर बेचे जा रहे थे.लकडियों से बने हैंण्डीक्रफ्ट्स ने ज़रूर प्रभावित किया.
आज के डिनर का निमंत्रण शाहजहां भाईजान की तरफ से था. वे क़रीब 8-30बजे आये और हमें वहां के प्रसिद्ध मुग़ल दरबार रेस्टोरेंट ले गये. रेस्टोरेंट के अन्दर की साज सज्जा बेहद दिलकश थी. उन्होंने कश्मीरी व्यंजन का आर्डर दिया. हमने रोगन जोश, गुस्तावा, कश्मीरी बिरयानी, बतर चिकन और मुंतांजा व्यंजन चखे. मैंने जगह-जगह के नान वेज टेस्ट किया है लेकिन जिन्दगी में पहली बार इतने लजीज नान वेज व्यंजन खाये थे. डिनर के बाद शाहजहां भाईजान ने हमें वापस हाऊस बोट छोडा और हम पांच मिनट के भीतर अपनी-अपनी रजाई में थे. अगले दिन हमारी फ़्लाइट 2-30बजे थी ठीक 11.30पर शाहजहां भाई जान फिर हाज़िर थे. एयरपोर्ट लगभग 12किलोमीटर दूर था. भाईजान हमें वहां तक छोडने आये. एक दिन की मुलाकात के बाद इतना अपनापन पहली बार देखने को मिल रहा था. तमाम सुरक्षाचक्रों से गुज़रते हुए 3.30बजे हमने कश्मीर की खुशनुमा और न भलाई जा सकने वाली यादों के साथ हम दिल्ली की ओर उड चले. दीपवली की भीड-भाड के कारण बडी मुश्किल से रात 2बजे आगरा पहुंच सके. अगले दिन संजीव भाई से जब ये सारी बातें शेअर हुईं तो उनके आग्रह पर इस संस्मरण को मैंने लेखनीबद्ध किया और संजीव भाई के हवाले कर दिया. आखिर में मैं उन सभी का शुक्रिया अदा करता हूं जिन्होंने टिप्पणियों के द्वारा मेरी हौसला आफ्ज़ाई की. फिर किसी मोड पर मुलाकात होगी.........
नवनीत वर्मा
44,गौरी कुंज गैलाना रोड आगरा-7
मो09219539366

शनिवार, नवंबर 14, 2009

और आगे की

गतांक से आगे--
साहिल ने बताया कि सर ये गेस्ट हाऊस हैं.जहां पर्यटक रुकते हैं. खूबसूरत वातावरण के बीच बने उन गेस्ट हाऊस को देखकर मैंने अजय से कहा कि 'छोडो यार, लौटने की फ्लाइट रद्द करो' लेकिन यह व्यवहारिक तौर पर सम्भव नहीं था. गुलमर्ग की जिन सडकों पर हम चल रहे थे, सर्दी के मौसम में उअन पर लगभग 4से5फुट तक बर्फ जम जाती है. थोडा आगे कश्मीर के पूर्व राजा हरी सिंह का महल भी देखा. रखरखाव के अभाव में काफी जीर्ण अवस्था में था. महल पर्यटकों के लिये बन्द था, लेकिन लकडी से बना यह महल अपने समय में बेहद खूबसूरत रहा होगा. फिलहाल यह राजा हरी सिंह के पुत्र डा. कर्ण सिंह की निजी सम्पत्ति है. हमने साहिल से वहां के आम लोगों की जिन्दगी के बारे में भी जानने की कोशिश की. साहिल ने बताया कि,'सर यहां बेहद गरीबी है. सिवाय पर्यटन के यहां आय का कोई दूसरा साधन नहीं है. आप लोग बाहर से यहां घूमने आते हैं और उसी से हमारी रोजी-रोटी चलती है' साहिल की उम्र बमुश्किल 19-20 वर्ष की रही होगी, लेकिन उसकी शादी हो चुकी थी. उसने बताया कि 'कश्मीर के खराब दौर में मैं बहुत छोटा था. उस समय मेरे वालिद ने मुझे और भाई-बहनों को बडी मुश्किल से पाला है. यहां उस समय पर्यटक न के बराबर आते थे.' साहिल अपनी बातों से लगातार यह जाहिर करने की कोशिश कर रहा था कि हिन्दू और मुसलमान में कोई फर्क नहीं है. सब इंसान ही होते हैं. अब इसे अच्छी सोच कहिये या हिन्दू पर्यटकों को लुभाने का प्रयास पर कश्मीर के बुरे वक्त ने उस दौर के युवाओं की सोच और ज़ुबान पर को बदल दिया है. वहां मौजूद एक मजबूत टिन की चादरों से ढके एक विशाल हाल के बारे में बताया कि यहां सर्दियों में 'आइस स्केटिंग' के खेलों का आयोजन किया जाता है. गुलमर्ग में हम एक चीज घूमने से वंचित रह गये वो था गंडोला. ये एक रोप-वे प्रणाली है, जिसके पहले चरण में रोप-वे पहाडों पर आपको 300मीटर की ऊंचाई तक ले जाता है और दूसरे चरण में वहां से 500मी. की ऊंचाई तक ले जाता है. यानि कि कुल 800मी. की ऊंचाई तक आप जा सकते हैं. रखरखाव के कार्यों की वजह से यह सेवा बन्द थी. शहरी कोलाहल से दूर गुलमर्ग की वादियों में यह दिन बेहद सुखद था. शाम के चार बज चुके थे. वक़्त हो गया था गुलमर्ग से विदा लेने का. इतनी खूबसूरत और दिलकश वादियां मैंने कभी नहीं देखी थी. गुलमर्ग से वापसी में एक स्थानीय अध्यापक आरिफ साहब भी हमारे सहयात्री थे जो किसी निजी कार्य से गुलमर्ग आये थे. आरिफ साहब ने बताया कि अब तो शिक्षा के क्षेत्र में यहां काफी विकास हो रहा है. नये-नये तकनीकी कालेज खुल रहे हैं. पिछले 7-8 सालों में बी.एड. के इअतने निजी कालेज खुल गये हैं कि पंजाब और हिमाचल तक से छात्र यहां पढने आते हैं. बुरे वक़्त को याद करते हुए उनकी आवाज़ बहुत भावुक हो गयी. बोले,' आजकल की नयी पीढी क्या जाने कि बुरे हालात क्या होते हैं. उन्होंने तो अपनी जवानी के दिन कश्मीर के अच्छे हालातों में देखे है6. हम लोगों की जवानी तो कश्मीर के बुरे हालातों के साथ शुरू हुई और जब बुरे हालात खत्म हुए तो जवानी भी खत्म हो गयी'.
श्रीनगर लौटकर शाम के वक़्त हमने शिकारे से डलझील घूमने का मन बनाया. हल्का-हल्का अंधेरा हो चला था. कुशन लगी हुई गद्दियों से सजा हुआ शिकारा बेहद आरामदायक था. चारों तरफ पहाडो से घिरी हुई डल झील में शिकारे से घूमना मुझे जन्नत में होने का अहसास दे रहा था. खूबसूरत रोशनियों से जगमगाते हाऊस बोटों के श्रृंखला देखने लायक थी. दूर पहाड पर रोशनी से नहाता हुआ किला अज़ब ही दृश्य उत्पन्न कर रहा था........

रविवार, नवंबर 08, 2009

कुछ फोटो और---











और अब आगे की-

गतांक से आगे----
सुबह उठते ही हाऊसबोट के बाहर जब मैंने आस-पास का जायज़ा लिया तो देखा कि चारों तरफ़ पहाडियों से घिरा डल झील का वह इलाका बेहद खूबसूरत था. प्रकृति अपने सुन्दरतम रूप में मेरे सामने थी. हल्का नाश्ता लेकर बाहर थोडा घूमने चले गये. डल झील के किनारे-किनारे की 15किमी0 लम्बी सडक का नाम ब्लूवर्ड रोड है.यह श्रीनगर की मुख्य सडक है. पर्यटन की दृष्टि से सारे होटल, रेस्टोरैंट और प्रतिष्ठान इसी रोड पर स्थित हैं. आज हमने गुलमर्ग जाने का निश्चय किया. श्रीनगर से गुलमर्ग लगभग 52किमी0 दूर है. बटमालू बस स्टेशन से क़रीब 40किमी0 दूर स्थित टनमर्ग तथा वहां से वाहन बदलकर क़रीब 12किमी आगे गुलमर्ग. टनमर्ग से गुलमर्ग तक का सफर बेहद आनन्ददायक था. बिल्कुल सुनसान सडक पर देवदार के खामोश जंगल अलग ही वातावरण का निर्माण कर रहे थे. दूर पहाडों पर स्थित देवदारों की श्रृंखला मनोहारी दृश्य पैदा कर रही थी. 11बजे हम गुलमर्ग पहुंच गये . पहुंचते ही ऐसा लगा कि बिल्कुल नयी दुनिया में कदम रखा हो. मौसम काफी ठण्डा था. गुलमर्ग की सुन्दरता को बयान करने के लिये मेरे पास शब्द नहीं हैं. मैंने और भी हिल स्टेशन देखे हैं. लेकिन यहां आकर मेरे दिल की कैफ़ियत अजब ही थी. गुलमर्ग एक छोटा सा हिल स्टेशन है, जिसे पर्यटकों के अनुसार विकसित किया गया है. गुलमर्ग घोडे पर बैठकर भी घूमा जा सकता है. मैं और अजय घोडों पर सवार होकर गुलमर्ग की सैर को निकल पडे. हमारे साथ घोडों के मालिक मो0साहिल थे . सडक पर घोडों पर चलते हुए बेहद खूबसूरत दृश्य आंखों के सामने थे. सड्क के किनारे थोडी-थोडी दूर पर लकडी के खोपडीनुमा मकान बने हुए थे---
क्रमश: अभी थोडी देर बाद बिजली आने पर

पहले कुछ फोटो

इस पोस्ट में विलम्ब के लिये सभी से क्षमा प्रार्थना. कारण यह रहा कि लेख यहां और फोटो दिल्ली में उम्मीद थी कि समय से मिल जायेंगे लेकिन नवनीत भाई का अजय से सम्पर्क ही नहीं हो पा रहा है. जितने फोटो नेट पर अपलोड मिले उन्हीं से काम चलाते हुए आगे की बात करते हैं.....





























मंगलवार, अक्तूबर 27, 2009

कश्मीर में तीन दिन भाग-3

गतांक से आगे---
हमें बेसब्री से प्रसिद्ध जवाहर सुरंग का इंतज़ार था. एशिया की सबसे लंबी सडक सुरंग के बारे में बचपन से ही सुन रखा था. कई जगह बीच में सडक पर shed बने हुथे थे. मैंने उनके बारे में शाहजहां भाईजान से पूछा तो उन्होंने बताया कि ये Avalanch zone है. ठंड में यहां पर ऊंची पहाडियों से बर्फ़ लुढकती हुई आती है और जिससे दुर्घटना हो जाती है. ऐसी जगहों को चिह्नित करके वहां ये शेड्स बना दिये गये हैं, जिससे यात्री और वाहन सुरक्षित रहें. आगे बढते हुए हम लोग जवाहर सुरंग के प्रवेश द्वार पर आ पहुंचे. पीर पंजाल की पहाडियों में बनी हुई जवाहर सुरंग वास्तव में जम्मू एवं कश्मीर के बीच सीमा का काम करती है. 2.5 किमी0 लम्बी जवाहर सुरंग के आस-पास सेना के अत्यधिक जवानों की उपस्थिति यह दर्शा रही थी कि यह सुरंग कितनी महत्वपूर्ण है. जवाहर सुरंग से बाहर आते ही एक और आश्चर्य मेरा इंतज़ार कर रहा था. मेरी सोच थी कि कश्मीर की सडकें पर्वतीय सडकों की तरह घुमावदार होंगी, लेकिन यहां तो सपाट और सीधी सडक बिलकुल मैदानी इलाकों जैसी. जवाहर सुरंग से कश्मीर मात्र 80किमी0 दूर रह गया था. शाम के पांच बज गये थे लेकिन सीधी-सपाट सडक होने की वज़ह से हम तेज़ी से अपनी मंज़िल की ओर बढ रहे थे. जवाहर सुरंग से श्रीनगर तक हर गांव में 10-12 और रास्ते में थोडी-थोडी दूर पर 4से5 फ़ौजी जवानों की मौज़ूदगी वातावरण में ख़ौफ़ पैदा कर रही थी. श्रीनगर से थोडा पहले पामपुर क़स्बा केसर की खेती के लिये मशहूर है. देश-विदेश तक यहां से केसर की सप्लाई ख़ूब होती है. हम लोगों ने भी असली केसर लेने की इच्छा भाईजान से व्यक्त की, लेकिन कम से कम 2800रू0प्रति 10 ग्राम के दाम सुनकर इरादा बदल दिया. लगभग 7बजे हम लोग श्रीनगर के बाहरी इलाके में पहुंच चुके थे. यहां भी आगरा जैसा जाम सडकों पर पूरी शिद्दत से उपस्थित था. वाकई पूरा हिन्दुस्तान इस मामले में एक है. शाहजहां भाईजान से मित्रता और प्रगाढ हो चुकी थी. उनका घर हालांकि श्रीनगर में घुसते ही था लेकिन वो हमें डल झील के किनारे छोडकर और अपने परिचित की हाऊसबोट भी बुक करवाकर आये.किराया भी बेहद मुफ़ीद मात्र 700रू0 प्रतिदिन. हाऊस बोट के मालिक मो0एज़ाज से रात्रि का भोजन हमने बोट पर ही मंगा लिया और एजाज भाई को भी अपने साथ ही बैठा लिया. भोजन करते हुए एजाज भाई से बातचीत चलती रही. एजाज भाई ने बताया कि पूरी डल झील में लगभग 700 हाऊसबोट हैं. हमारा ये काम पीढियों पुराना है. मेरे दादा और परदादा यही काम करते थे. एक हाऊसबोट की उम्र तक़रीबन 50से60 साल होती है. कुछ संवेदनशील मुद्दों पर भी हमने उनके मन की बात जाननी चाही क्योंकि कश्मीर के बारे में जानने बहुत इच्छा थी हमारी. एजाज भाई ने बताया कि 'सर आज का कश्मीर तो बेहद खुशहाल है. पिछले 9-10 सालों में बहुत कुछ बदल गया है. सन 2000 के पहले तो यहां के अधिकतर होटलों पर फ़ौजों का क़ब्ज़ा था. शाम 6 बजते ही कर्फ़्यू लग जाता था. उस समय आतंकी और फ़ौज़ यहां के लोगों पर बहुत ज़ुल्म करते थे.' एजाज भाई ने हलांकि स्थानीय युवाओं के आंतकी बनने से इंकार तो नहीं किया लेकिन कहा कि,'सर ये लोग भी क्या करें . आप ही बतायें कि सिवाय पर्टयन के यहां के लोगों पर रोज़गार है? आतंकवाद का मुख्य कारण ही यहां की गरीबी है. यहां श्रीनगर शहर में लोगों पर फिर भी काम है लेकिन यहां के गांवों में बेहद गरीबी है. पाकिस्तान की शह, पैसों का लालच और कुछ हद तक फ़ौज़ों की दमनकारी नीतियां युवकों को आतंकी बनने पर मज़बूर कर देती हैं. महज़ 8से 10हज़ार रू0 के लिये लोग आतंकी बनने के लिये तैयार थे. फ़ौज़ में भ्रष्टाचार भी इसकी मुख्य वज़ह है. नहें तो आप ही बतायें 10से 15 लाख फ़ौज़, जिसमें बार्डर पर बी0एस0एफ0, उसके पीछे इंडियन आर्मी और अन्दर की सुरक्षा सी0आर0पी0एफ0 व जम्मू-कश्मीर पुलिस के पास हो तो बिना भ्रष्टाचार के क्या ये संभव है कि बार्डर पार से आतंकी आ जायें. सर मेरे कुछ रिश्तेदार बार्डर पार पाक अधिकृत कश्मीर में भी हैं. वो तो हमसे 50साल पीछे चल रहे हैं. वहां के हालात तो बद से बदतर हैं.' स्थानीय नेताओं से भी एजाज भाई ख़ासे नाराज़ थे. उनका कहना था कि, 'सारी समस्याओं के पीछे कहीं न कहीं ये नेता लोग भी हैं. अपनी दुकान चलाने के लिये ये कुछ भी कर सकते जाते हैं. अगर महीने में लाल चौक पर कोई घटना न घटे तो कोई न कोई नेता खुद ही साज़िश रच लेता है. सब मिले हुए हैं.' मीडुया वालों से भी उन्हें शिकायत थी कि, 'पता नहीं क्या दिखाते और छापते रहते हैं. सर आप ही बतायें क्या आपको लगता है कि अब कश्मेर कहीं से भी अशांत है. मुझे उसकी बातें सही लगी कि गरीबी और लाचारी ही अपने पीछे आतंकवाद और नक्सलवाद लेकर आती हैं. हमने एजाज भाई स्वादिष्ट खाने के लिये धन्यवाद दिया और सोने के लिये विदा मांगी.........
क्रमश ...........

रविवार, अक्तूबर 25, 2009

कश्मीर में तीन दिन भाग-2

गतांक से आगे---
सफ़र की शुरूआत होने के साथ-साथ बातचीत का दौर भी शुरू हो गया. सडक पर लगे मील के पत्थर पर देखा तो कश्मीर अभी 300किमी0 दूर था. जम्मू शहर पार करते ही पहाडी रास्ता शुरू हो गया. मौसम बेहद खुशनुमा था. थोडी देर बाद ही चिनाब हमारे साथ-साथ चलने लगी. मैं इस बात से बेहद रोमांचित था कि मैं उस महान सिंधु नदी से भी ज़्यादा दूर नहीं था जहां मोहनजोदडो जैसी सभ्यता विकसित हुई थी. बातचीत में सामने आया कि गाडी के ड्राइवर ही गाडी के मालिक हैं शाहजहां नाम था उनका. हम उम्र ही थे, लगभग उंतीस-तीस के क़रीब. बेहद ज़िन्दादिल और यारबास किस्म के व्यक्ति लगे. थोडी देर में ही शाहजहां, शाहजहां भाईजान की भूमिका में रूपांतरित हो चुके थे. एक बडा मज़ेदार किस्सा उन्होंने बताया कि क्लास में जब भी ये पूछा जाता था कि ताज़महल किसने बनाया था तो हमेशा मेरा जवाब होता था कि मैंने. अजय भी अपनी कश्मीर की जानकारियों के साथ बातचीत में शामिल था. मैं उसकी जानकारियों से हैरान था. समूचे उत्तर भारत के पहाडी ,रास्ते पर्यटन के अड्डे, रुकने और खाने के सस्ते से सस्ते और मंहगे से मंहगे स्थान. गली नुक्कड के प्रसिद्ध खोमचे वाले. सब कुछ.सारे रास्ते भर उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश और हिमांचल की जानकारियों का ख़ज़ाना भरते रहे. रासते में हमने एक क़स्बे में छोटी सी दुकान पर चाय और पूडियां खायीं. शाहजहां भाई ने आगे रास्ते में एक मोड पर बताया कि वैष्णो देवी का मन्दिर यहां से ज़्यादा दूर नहीं है. मात्र 8किमी0 ही दूर है. लेकिन अफसोस समयाभाव कहिये या माता का बुलावा हम वहां नहीं जा सके. लगभग चार घंटे की यात्रा में हम आधी दूरी तय कर चुके थे. सामने दूर पहाडी पर निर्माण कार्य चल रहा था. शाहजहां भाई ने बताया कि ये विवादित बगलिहार परियोजना है. वहां एक ढाबे पर हमने कर रोकी पता चला कि वहां का राज़मा-चावल बहुत मशहूर है. दोपहर का भोजन हमने वहीं ग्रहण किया. ग्रहण क्या किया एक इतिहास का हिस्सा बने. जहां हम बैठे हुए थे ठीक उसके पीछे बगलिहार परियोजना का विहंगम दृश्य था. अद्भुत नज़ारा था. निर्माणाधीन बांध का सामने का विशाल हिस्सा धूप में चमक रहा था. बांध के पीछे चिनाब की विशाल जलराशि थी. मन था कि पूरा दिन वहीं गुज़ारा जाय. ख़ैर थोडी देर विश्राम कर आगे की यात्रा शुरू हुई. अब वैचारिक स्तर पर थोडा और खुलते हुए हमने कश्मीर पर शाहजहां भाई की राय जाननी चाही. ये जानकर बेहद आश्चर्य हुआ कि पाकिस्तान के प्रति उअनके मन में काफ़ी आक्रोश था. हालांकि पाक अधिकृत को बार-बार आज़ाद कश्मीर ही कहा उन्होंने. हमारे टोकने पर उन्होंने ख़ेद व्यक्त किया कि उनका वह मतलब नहीं था. उन्होंने बतया कि पाक अधिकृत कश्मीर की तुलना में यहां का जीवन स्तर बहुत उन्नत है. चिनाब के साथ-साथ हमारी यात्रा चलती रही. जैसे-जैसे हम आगे को बढते गये वातावरण की ख़ूबसूरती में इज़ाफ़ा होता गया. एक परिवर्तन और साफ दिखाये दिया कि जैसे-जैसे कश्मीर पास आता गया सडक के किनारे क़स्बों में हिन्दू और सिखों के स्थान पर मुसलमानों की आबादी में इज़ाफ़ा होता गया.
क्रमश:-

गुरुवार, अक्तूबर 22, 2009

यात्रा-1

अभी कुछ दिन पहले दीपावली के आस-पास मेरे एक मित्र डा. नवनीत, कश्मीर होकर आये. डा. नवनीत साहित्यकार नहीं हैं, पेशे से एक इंस्टीट्यूट के निदेशक हैं. वापस आने पर जब उनसे मुलाकात हुई तो उनकी यात्रा की जानकारी हुई. कश्मीर पर भी चर्चा हुई. उसी चर्चा से यह विचार आया कि उनके अनुभवों से आप सबको भी साझा किया जाय. मेरे अनुरोध पर भाई नवनीत ने यात्रा के अनुभव को पूरी शिद्दत से लिपिबद्ध किया है. मैं सिर्फ़ प्रस्तुतकर्त्ता की भूमिका में हूं. हमेशा की तरह अपनी बेशकीमती राय से ज़रूर अवगत करायें-
कश्मीर में तीन दिन---------
11 अक्टूबर,2009 को रात के कोई 9-30 बजे का वक़्त होगा. भोजन करने के बाद मैं बिस्तर पर 'अमर उजाला' की एक पुरानी प्रति में शशांक शेखर का कश्मीर पर एक आलेख पढ रहा था. सहसा मेरे मन में एक विचार कौंधा कि क्यों न कश्मीर की यात्रा कर ली जाय. मैंने तुरंत अपने मित्र डा. अजय विक्रम सिंह को फोन लगाया और आलेख के बारे में बताते हुए अपनी इच्छा व्यक्त की. वो फौरन तैयार हो गये और आनन फानन में हमने तुरंत 13 तारीख को ट्रेन से जाने एवं 16 को विमान से वापस आने का रिजर्बेशन करा लिया. आगरा से दिल्ली का रिजर्वेशन नहीं कराया था. आगरा से 'स्वर्ण जयंती' के साधारण डिब्बे में ज़्यादा भीड थी सो हम टी0टी0 से पूछकर स्लीपर मॆं सवार हो गये. बाद में टी0टी0 के सुर ही बदल गये. वो तो ज़्यादा पेनल्टी मांगने लगा. उसके और भी साथी आ गये. ऐसा लग रहा था कि जैसे अवैध वसूली का पूरा गैंग हो. ख़ैर अजय की बडी कोशिशों से थोडा सा डिफ़रेंस शुल्क देकर जान बची. शाम 5-30पर दिल्ली पहुंचे. राजेन्द्र नगर में अजय का कुछ काम निपटाते हुए नई दिल्ली से 'उत्तर सम्पर्क क्रांति' में सवार हुए. सामने की सीट पर एक सरदार जी थे. उनसे बातचीत होने लगी . सरदार जी ने सुझाव दिया कि ऊधमपुर के बजाय हम लोग जम्मूतवी उतरें क्योंकि ऊधमपुर से टैक्सी की अच्छी सुविधा उपलब्ध नहीं है. सुबह क़रीब 6बजे कठुआ के आस-पास मेरी नींद खुली मोबाइल पर टाइम देखा तो पता चला कि टाटा इंडिकाम के अलावा सारे मोबाइल ने काम करना बन्द कर दिया है. अजय ने जब अपने मोबाइल से नेटवर्क सर्च किया तो अचंभा हुआ कि पाकिस्तान के कुछ मोबाइल आपरेटर के सिग्नल भी हमारा फोन पकड रहा था. याद के तौर पर कैमरे से फोटो लेकर हमने सुरक्षित रख लिया. करीब 8बजे सुबह हम लोग जम्मूतवी उतरे. वहां उतरकर पूछ्ताछ की तो पता चला कि श्रीनगर जाने के लिये टैक्सी बस स्टेशन से मिलेगी. बस स्टेशन वहां से क़रीब 8 किमी0 दूर था. ख़ैर बस स्टेशन पहुचे. सबसे पहले तो एक होटल पर आलू के परांठे और चाय का नाश्ता लिया फिर श्रीनगर के लिये टैक्सी की खोज शुरू हुई. हम सोच ही रहे थे कि कौन सी टैक्सी ले जाय एक सरदार जी से फिर मुलाकात हुई, उन्होंने आफ़र किया कि एक सेंट्रो श्रीनगर तक जा रही है, किराया टैक्सी के बराबर ही लगेगा हम सहमत तहों तो चल सकते हैं. ये सोचकर कि पहाडी रास्ते का सफ़र कार में अच्छा रहेगा हम दोनों सरदार जी के साथ हो लिये. कार में ड्राइवर के अलावा चार लोग और थे. आगे की सीट पर वही सरदार जी, पीछे हम दोनों के अलावा एक काश्मीरी और था......
क्रमश: शीघ्र ही -----

बुधवार, अक्तूबर 07, 2009

ग़ज़ल















ये ग़ज़ल भाई गौतम राजरिशी के अच्छे स्वास्थ्य की कामना, उनकी जिजीविषा, उनके अदम्य हौसले, उनकी अटूट देशभक्ति, उनके निर्मल मन, उनके सच्चे साहित्यकार और प्यारी भतीजी तनया को समर्पित है-

ग़ज़ल
पांव के छाले या अपना रास्ता देखूं.
मुश्किलें देखूं या अपना हौसला देखूं.
.
उसमें सब तो हैं वफ़ा, ईमान, ख़ुद्दारी,
उसमें अब इनके अलावा और क्या देखूं.
.
काश ये बारूद के बादल हटें नभ से,
फूल, तितली, रंगों का इक सिलसिला देखूं.
.
पास में संवेदनाएं तक नहीं जिनके,
उन अमीरों की तरफ़ मैं क्यों भला देखूं.
.
मेरा पहला और अंतिम ख़्वाब बस ये है,
घर अंधेरों का सदा जलता हुआ देखूं.

गुरुवार, अक्तूबर 01, 2009

इधर कुछ दिनों से मन अच्छा नहीं रहा. कम्प्यूटर पर आवाजाही कम ही हुई उस पर गौतम भाई का समाचार मन को उदास किये रहा. कल सुबह जैसे ही हिन्दुस्तान अखबार पर निगाह पडी तो पहली खुशी मिली. सम्पादकीय पृष्ठ पर नई सडक वाले भाई रवीश जी के ब्लाग वार्ता कालम में गौतम राजरिशी के ब्लाग पर आलेख पढकर आनन्द आ गया. जैसी ही गौतम भाई को फोन पर इसकी सूचना दी तो दूसरी खुशी यह समाचार जानकर हुई कि भाई की तबीयत पहले से काफी बेहतर है और अब थोडा टहल भी रहे हैं. परम पिता को लाख-लाख धन्यवाद......
अब एक अजीब संयोग की चर्चा.... पिछले वर्ष निर्वाचन की ड्यूटी के दौरान निर्वाचन सूचियों से माथापच्ची के समय बडा अज़ब संयोग देखने को मिला कि जैसे हम तीन भाई राजीव, संजीव और प्रमोद है वैसे ही दूसरे राजीव, संजीव और प्रमोद हैं. मेरा दोस्त राहुल और उसका भाई रोहित वैसे ही वहां राहुल और उसका भाई रोहित ही है. ऐसे तमाम उदाहरण देखने को मिले. कल जब आफिस में अपने वरिष्ठ साथी का परिचय पत्र देखा तो उनके पिता का नाम श्री लालमणि था. निर्वाचन ड्यूटी के समय इसी नाम के एक निर्वाचक के पिताजी का नाम रामजतन था. मैंने उनसे पूछा कि उनके बाबा का क्या नाम था वो बोले राम जतन. मैं हतप्रभ था.... आदरणीय श्री राजेश रेड्डी जी का ये शेर कानों में गूंजने लगा--

दिल के बहुत करीब निगाहों से दूर है.
दुनिया में एक और भी दुनिया ज़रूर है.


रविवार, सितंबर 13, 2009

ग़ज़ल-12



पूरे सात वर्ष अवसाद में रहने के पश्चात इस वर्ष इस ग़ज़ल से मेरे साहित्यकार / ग़ज़लकार की नयी पारी शुरू हुई. अपनी बुनावट में साधारण होने के बावज़ूद मेरे लिये इस ग़ज़ल के इस रूप में बहुत माइने हैं.-





ग़ज़ल-12
.
पहले से बेहतर हूं मैं.
सन्डे है घर पर हूं मैं.
.
दुनिया से वाबस्ता हूं,
आख़िरको शायर हूं मैं.
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बच्चे हैं तो मैं, मैं हूं,
उनकी खातिर घर हूं मैं.
.
दुनिया जिससे दुनिया है,
वो ढाई आखर हूं मैं.
.
जैसा चाहे वैसा कर,
अब तेरे दर पर हूं मैं.

रविवार, सितंबर 06, 2009

ग़ज़ल-11



आज बहुत दिन के बाद ठीक से फुर्सत हुई है. एक अतिसाधारण (अतिसाधारण इसलिये क्योंकि इसे कभी किसी गोष्ठी में पढने की हिम्मत नहीं हुई) ग़ज़ल आप सबके स्नेह के लिये प्रस्तुत करता हूं-

ग़ज़ल

अपनी कमज़ोरियां छिपाते हैं.
और हैं और ही जताते हैं.

कौन सा रोग ये है हमको लगा.
हमको दुनिया के ग़म सताते हैं.

अपना क्या है फ़क़ीर ठहरे हम,
सुख के बदले में दुख कमाते हैं.
.
मेरी कमियां मुझे बताते नहीं,
दोस्त यूं दुश्मनी निभाते हैं.
.
हक़ बयानी ज़रूर होगी वहां,
सच को सूली जहां चढाते हैं.
.
क्यों उठाते हैं लोग यूं पत्थर,
जब कभी हम ग़ज़ल सुनाते हैं.

रविवार, अगस्त 23, 2009

दोहाकार---अशोक अंज़ुम


अशोक अंजुम साहित्य जगत के बहुचर्चित व्यक्तित्वों में से एक हैं. हिन्दी की साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के लगभग हर दूसरे-तीसरे अंक में उनकी उपस्थिति देखी जा सकती है. साहित्यिक मंचों के साथ-साथ रंगमंच के क्षेत्र में भी उनकी सक्रिय भागेदारी है. उनकी अब तक -'मेरी प्रिय ग़ज़लें', 'मुस्कानें हैं ऊपर-ऊपर', 'अशोक अंजुम की प्रतिनिधि ग़ज़लें', 'तुम्हरे लिये ग़ज़ल', 'जाल के अन्दर जाल मियां' (ग़ज़ल संग्रह); एक नदी प्यासी (गीत सग्रह); भानुमति का पिटारा', 'ख़ुल्लम ख़ुल्ला', 'दुग्गी चौके छ्क्के', अशोक अंजुम की हास्य-व्यंग्य कविताएं' (हास्य-व्यंग्य संग्रह) साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है. इसके अतिरिक्त पांच ग़ज़ल संग्रह, नौ हास्य-व्यंग्य संग्रह, छ: दोहा संकलन, दो लघुकथा संकलन तथा दो गीत संकलन अंजुम जी के संपादन में प्रकाशित हो चुके हैं. पिछले पन्द्रह वर्षों से 'प्रयास' साहित्यिक त्रैमासिकी का संपादन कर रहे हैं. संवेदना प्रकाशन के नाम से अपना प्रकाशन भी चलाते हैं. इस सबमें सबसे बडी बात ये कि ये सब वे एक बहुत छोटी जगह अलीगढ से लगभग पन्द्रह किलोमीटर दूर कासिमपुर नामक छोटे से कस्बे से करते हैं. कासिमपुर दो वज़हों से जाना जाता है-एक-अपने बिज़ली के पावरहाऊस के लिये दो- साहित्यिक पावर हाऊस अशोक अंजुम के लिये. अभी उनका दोहा संग्रह प्रकाशित हुआ है-'प्रिया तुम्हारा गांव'. आज मन है इसी दोहा संग्रह से अंजुम जी के कुछ दोहे आप सब सुधीजनों को पढवाने का. आप सब दोहे पढें और अपनी बेशकीमती राय से हमेशा की तरह अवश्य अवगत करायें. आप चाहें तो सीधे श्री अंजुम जी को उनके मोबाइल न0 91-09319478993 पर या उनके डाक के पते-ट्रक गेट कासिमपुर (अलीग़ढ) 202127 पर भी बधाई प्रेषित कर सकते हैं. तो अब दोहों का आनन्द लें-
1-
आमंत्रण देता रहा, प्रिये तुम्हारा गांव.
सपनों में चलते रहे, रात-रात भर पांव.
2-
धूल झाडकर जब पढी, यादों जडी किताब.
हर पन्ने पर मिल गये सूखे हुए गुलाब.
3-
सहती रहती रात-दिन, तरह-तरह के तीर.
हर लेती हैं बेटियां, घर-आंगन की पीर.
4-
घर आंगन में हर तरफ, एक मधुर गुंजार.
हंसी-ठिठोली बेटियां, व्रत-उत्सव,त्यौहार.
5-
दोनों की फ़ितरत अलग, अलग-अलग मजमून.
इक घर में कैसे रहें, दौलत और सुकून.
6-
काहे की रस्साकशी, काहे की तकरार.
सब धर्मों का सार है, प्यार प्यार बस प्यार.
7-
सच्चाई के पांव में, जुल्मों की ज़ंजीर.
अंजुम फिर भी ना रुकें, गाते फिरें कबीर.
8-
साफ़ नज़र आता नहीं, किस रस्ते पर हिन्द.
लोकतंत्र की आंख में, हुआ मोतियाबिन्द.
9-
अरी व्यवस्था है पता, जो है तेरे पास.
अंतहीन बेचैनियां, मुट्ठी भर सल्फास.
10-
धुन्ध-धुंए ने कर दिया, हरियाली का रेप.
चिडिया फिरती न्याय को, लिये वीडियो टेप.
11-
चाटुकारिता हो गई, उन्नति का पर्याय.
पूंछ हिलाना बन गया, लाभ-देय व्यवसाय.
12-
दीवारें इस ओर हैं, दीवारें उस ओर.
ऐसे में फिर किस तरह, उगे प्यार की भोर.
13-
सूरज लगता माफ़िया, हफ़्ता रहा वसूल.
नदिया कांपे ओढकर, तन पर तपती धूल.
14-
घर-घर में आतंक है, मन-मन में है पीर.
गये दिनों की याद में, है उदास कश्मीर.
15-
मां चंदन की गंध है, मां रेशम का तार.
बंधा हुआ जिस तार से, सारा ही घर द्वार.
16-
रिश्तों का इतिहास है, रिश्तों का भूगोल.
सम्बन्धों के जोड का, मां है फेवीकोल.

शनिवार, अगस्त 15, 2009

ग़ज़ल-10


सभी मित्रों को स्वतंत्रता दिवस की आत्मिक शुभकामनाओं के साथ एक ग़ज़ल प्रस्तुत है और साथ में फोटो है चर्चित ग़ज़लकार बडे भाई श्री अशोक अंजुम जी(बीच में) और आगरा के युवा कवि भाई पुष्पेन्द्र पुष्प के साथ-

ग़ज़ल
प्रयासों मे कमी होने न पाये.
विजय बेशक अभी होने न पाये.

इसी कोशिश में हर इक पल लगा हूं,
कि गूंगी ये सदी होने न पाये.

तुम्हें ये सोचना तो चाहिये था,
कि रिश्ता अजनबी होने न पाये.

वतन की बेहतरी इसमें छिपी है,
सियासत मज़हबी होने न पाये.

जुदा हैं हम यहां से देखना पर,
मुहब्बत में कमी होने न पाये.

रविवार, अगस्त 09, 2009

शेयर बाज़ार मेरी नज़र में.......

चौंकिये मत मैं कवि ही हूं बस आज मन है कि इस पर भी अपने मन की बात आप सबसे शेयर कर ली जाय. मैं कोई इस बाज़ार का एक्सपर्ट तो नहीं लेकिन जो मैं इसके बारे मैं जानता और मानता हूं वही आप सबसे साझा करने की कोशिश करता हूं. बहुत सारे लोग सोचते हैं कि अरे अपने शेयर बेच लेते तो ज्यादा अच्छे रहते अब मार्केट गिरने पर खरीद लेते या अरे पहले न बेचकर अब बेचते तो अच्छा मुनाफा कमा लेते. ऐसा सोचना सही नहीं है. शेयरों को अथवा इस बाज़ार को ऊपर जाने/ले जाने के लिये वाल्यूम अर्थात शेयरों की आवश्यकता होती है. ऐसा कभी नहीं हो सकता कि बडे-बडे संस्थागत और विदेशी निवेशक शेयरों को बेचें, जनता खरीदे और बाज़ार ऊपर जाये. होता ये है कि ऊपर जाने पर आम निवेशक हर स्तर पर अपने शेयर बेचता जाता है, बडे-बडे सं0और विदे0 निवेशक शेयरों को खरीदते जाते हैं और बाज़ार ऊपर चढता जाता है. एक समय ऐसा आता है कि आम निवेशक की स्थिति दो तरह की हो जाती है- या तो बाज़ार में उसकी भागेदारी कम हो जाती है अथवा तेजी को देखते हुए आम निवेशक शेयरों को बेचना बन्द कर रोकना शुरू कर देता है, बस बाज़ार यहीं से गिरना शुरू हो जाता है क्योंकि ऊपर जाने के लिये उसके पास वाल्यूम ही नहीं हैं. अब बाज़ार उस समय तक करैक्शन मोड में रहता है जब तक कि आम निवेशक घबराकर या परेशान होकर शेयरों को बेचना शुरू नहीं कर देता है. इसलिये ये निश्चित है कि बाज़ार जितनी तेज़ी से ऊपर जायेगा उतना ही डीप करैक्शन होने की संभावना ज्यादा रहेगी. जब बाज़ार ऊपर से करैक्शन लेता है और आम निवेशक तुरंत शेयर बेचकर बाज़ार से दूर होने लगते हैं तो बाज़ार तुरंत वाल्यूम मिल जाने के कारण वापस ऊपर जाना शुरू कर देता है और यदि आम निवेशक उस करैक्शन मानकर बाज़ार नें निवेशित रहता है तथा और खरीददारी करता है तो बाज़ार वाल्यूम की तलाश में नीचे का रुख किये रहता है और तब तक किये रहता है जब तक कि आम निवेशक ऊपरी स्तरों पर ख़रीदे गये शेयरों को घाटे में बेचकर बाहर नहीं हो जाता. कुल मिलाकर बात ये है कि ये बाज़ार जनता से पैसा उगाहने के लिये बना है. देने के लिये नहीं. ऐसा कभी नहीं हो सकता कि आम निवेशक कोई शेयर पचास रुपये में खरीदकर सौ रुपये मे बेचे और खरीदनेवाला संस्थागत निवेशक हो हां ये हो सकता है कि संस्थागत निवेशक उसी शेयर को सौ रुपये में खरीदे और फिर एक सौ पचास रुपये में फिरसे आम निवेशक को चाशनी लगाकर बेच दे. पहले वाला आम निवेशक ज़रूर पचास रुपये कमालेगा लेकिन दूसरा आमनिवेशक पचास रुपये गंवायेगा. छुरी और तरबूज़े में से चाहे तरबूज़ा छुरी पर गिरे या छुरी तरबूज़े पर, नुकसान तरबूज़े का ही होना है, आमीन!

शनिवार, अगस्त 01, 2009

गीत

आज एक गीत और साथ में
सूर्य ग्रहण की फोटो प्रस्तुत है.





गीत

धूप से
संवाद करना
आ गया है.

उम्र भर
सच को सराहा
सच कहा.
झूठ का
हर वार
सीने पर सहा.
क्या डरायेंगे
हिरनकश्यप हमें,
स्वयं को
प्रह्लाद करना
आ गया है.

धूल वाले रास्ते
हक़ के सबब.
राजमार्गों से करेंगे
होड अब.
कानवाले
खोलकर
सुन लें सभी,
मौन को
प्रतिवाद करना
आ गया है.
धूप से
संवाद करना
आ गया है.

रविवार, जुलाई 26, 2009

कल रात डिस्कवरी चैनल पर डिस्कवर इंडिया कार्यक्रम देख रहा था. उसमें लद्दाख के निवासियों पर कार्यक्रम था, जिसमें एक परिवार दिखाया गया है जो पश्मीना बेचने के बाद एक भेड की दावत देता है. परिवार चूंकि बौद्धिस्ट है, जहां किसी भी प्रकार की हत्या को पाप माना जाता है सो वह भेड की हत्य के लिये गांव से एक लडके को बुलाता है. लडका रस्सी की सहायता से भेड को दम घोंटकर मारता है ताकि भेड को मरने में कम से कम कष्ट हो. भेड को मारने के बाद लडका उसकी खाल उतारता है, इसके बाद सावधानीपूर्वक आंतों को काटकर निकाल लेता है. तत्पश्चात आंतों में पानी भरकर और मुंह से फूंक मारकर आंतों को साफ करता है. भेड के सारे ख़ून को एक अलग बरतन में इकट्ठा कर लिया जाता है और उसमें जौ का आटा मिलाकर पेस्ट को आंतों में भर लिया जाता है. भरी आंतों को बरतन में पानी डालकर उबाल लिया जाताअ है और पूरा परिवार भेड की दावत उडाता है. माइं जानता और मानता हूं कि सारी दुनिया शाकाहारी नहीं है लेकिन मैं ये सोच रहा हूं कि क्या मैं उस परिवार का सदस्य होने के बाद भी ग़ज़लें लिख रहा होता? इस समय मुझे अपने मित्र कमल किशोर भावुक का ये शेर याद आ रहा है आप भी देखें-

मुस्कराकर पंख नौचे क्या अदा सैय्याद की,

हो गयी संवेदना आहत न जाने हो गया क्या.

रविवार, जुलाई 19, 2009

दोहे

मित्रो
कई दिन से उधेडबुन में हूं. दरअसल ब्लाग ग़ज़लों का है और मन बहुत कुछ कहने को करता है. सो निर्णय किया है कि आगे से ब्लाग का कायान्तरण करते हुए ब्लाग को सारे बन्धनों से मुक्त कर दिया जाये, यानि कि अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी. हालांकि विचारों के लिये एक नया ब्लाग बना सकता था लेकिन मामला कुछ जम नहीं रहा. एक साथ कई ब्लाग पर काम करना मेरी सीमित सामर्थ्य से बाहर है. मैं इतने विशाल हिन्दी ब्लाग जगत का हिस्सा बनकर ही अपने को गौरवान्वित महसूस करता हूं. तो नये रूप में प्रवेश करते हुए कुछ दोहों से शुरूआत करता हूं अगर किसी लायक लगें तो हमेशा की तरह अपना बेशकीमती स्नेह अवश्य प्रदान करें---

सदैव अपनों का-------------संजीव गौतम.
1-
कल आंगन में रात भर, रोया बूढा नीम.
दो हिस्सों में देखकर, घर-आंगन तकसीम.
2-
शहरों में जा गुम हुआ, गांवों का सुख-नेह.
गांवों को भी हो गया, शहरों का मधुमेह.
3-
गोदी में सूरज लिये, मन में गूंगी चीख़.
दोनों हाथ पसारकर, चन्दा मांगे भीख़.
4-
सोने, चांदी सी कभी, तांबे जैसी धूप.
दिन भर घूमे गांव में, बदल-बदलकर रूप.
5-
ज़िन्दा रहने के लिये, करते हैं सौ यत्न.
माटी से पैदा हुए, ये माटी के रत्न.
6-
अपनी-अपनी बुद्धि है, अपनी-अपनी सोच.
मिट्टी में जितनी नमी, उतनी उसमें लोच.
7-
नीले बादल जिस तरफ, उधर गांव का छोर.
गर्म हवाएं इस तरफ, महानगर इस ओर.

बुधवार, जुलाई 01, 2009

ग़ज़ल

कांटे चुनता रहता हूं.
रिश्ते बुनता रहता हूं.
मेरी कौन सुनेगा अब,
मैं ही सुनता रहता हूं.
इस आती पीढी को देख,
सर को धुनता रहता हूं.
जाने किन उम्मीदों में,
सपने बुनता रहता हूं.
ये दिन भी कट जायेंगे,
सबसे सुनता रहता हूं.

शनिवार, जून 20, 2009

नवगीत की पाठशाला में
मेरा नवगीत पढें--

शनिवार, मई 30, 2009

ग़ज़ल


वही हालात हैं बदला हुआ कुछ भी नहीं है.
वही चेहरे वही किस्से नया कुछ भी नहीं है.

पुराने लोग हैं कुछ जो नज़र आते हैं वरना,
नयी तहज़ीब में तहज़ीब सा कुछ भी नहीं है.

बहुत बेचैन होता हूँ मैं जब भी सोचता हूँ,
यहाँ इस मुल्क़ में अब मुल्क़ सा कुछ भी नहीं है.

अगर सोचो तो बेशक दूरियाँ ही दूरियाँ हैं,
अगर ठानो तो इतना फ़ासला कुछ भी नहीं है.

इसे मुश्किल तो हम ही मान बैठे हैं नहीं तो,
अभी भी झूठ को ललकारना कुछ भी नहीं
है.

बुधवार, मई 13, 2009



नवगीत की पाठशाला में मेरा नवगीत पढें


http://navgeetkipathshala.blogspot.com/2009/05/blog-post.html

रविवार, मई 10, 2009

कभी तो............ग़ज़ल


कभी तो दर्ज होगी जुर्म की तहरीर थानों में.
कभी तो रौशनी होगी हमारे भी मकानों में.

कभी तो नाप लेंगे दूरियाँ ये आसमानों की,
परिन्दों का यकीं क़ायम तो रहने दो उड़ानों में.


अजब हैं माइने इस दौर की गूँगी तरक्की के,
मशीनी लोग ढाले जा रहे हैं कारख़ानों में.


कहें कैसे कि अच्छे लोग मिलना हो गया मुश्किल,
मिला करते हैं हीरे कोयलों की ही खदानों में.


भले ही है समय बाक़ी बग़ावत में अभी लेकिन,
असर होने लगा है चीख़ने का बेज़ुबानों में.


नज़रअंदाज़ ये दुनिया करेगी कब तलक हमको,
हमारा भी कभी तो ज़िक्र होगा दास्तानों में.

सोमवार, अप्रैल 13, 2009

ग़ज़ल


लकीरों को मिटाना चाहता हूँ।
हदों के पार जाना चाहता हूँ।


विरासत में मिले हैं चन्द सपने,
उन्हें सूरज दिखाना चाहता हूँ।

सुफल लगते हैं मेहनत के शजर पर,
ये बच्चों को बताना चाहता हूँ।

बहुत ख़ुश दीखती हो तुम कि जिसमें,
वही किस्सा सुनाना चाहता हूँ।

मेरी ग़ज़लो मैं अपनी मौत के दिन,
तुम्हें ही गुनगुनाना चाहता हूँ।

बुधवार, मार्च 18, 2009

ग़ज़ल



जाने कितने ख़तरे सर पर रहते हैं।
हम अपने ही घर में डर कर रहते हैं।


मेरे भीतर कोई मुझसे पूछे है,
मेरे भीतर क्यों इतने डर रहते हैं।


जिन हाथों में कल तक फूल अमन के थे,
आज उन्हीं हाथों में पत्थर रहते हैं।


बादल, बारिश, नदिया, तारे, जुगनू, गुल,
सारे मंज़र मेरे भीतर रहते हैं।


मेरे चुप रहने कि वज़हें पूछो मत,
मेरे भीतर कई समन्दर रहते हैं।

मंगलवार, मार्च 17, 2009

ग़ज़ल

सज़ा मेरी ख़ताओं की मुझे दे दे।
मेरे ईश्वर मेरे बच्चों को हँसने दे।


इशारे पर चला आया यहाँ तक मैं,
यहाँ से अब कहाँ जाऊँ इशारे दे।


विरासत में मिलीं हैं ख़ुशबुऍ मुझको,
ये दौलत तू मुझे यूँ ही लुटाने दे।


मैं ख़ुश हूँ इस गरीबी मैं, फकीरी मैं,
मैं जैसा हूँ, मुझे वैसा ही रहने दे।


उजालों के समर्थन की दे ताकत तू,
अँधेरों से उसी ताकत से लड़ने दे।

सोमवार, जून 05, 2006

ग़ज़ल

दुश्मनों के साथ है वो और मेरे साथ भी.
क्यूँ निभाता है वो अक्सर इस तरह से दोस्ती.


मंजिलों की ओर झूठे रास्तों से जाऊँ क्यों,
मंजिलों की ओर सच्चे रास्ते हैं और भी.

क्या वजह है सिफ॔ शीशे के घरों तक ही गई,
आज भी कच्चे घरों से दूर क्यों है रोशनी.

क्या व्यवस्था है नियम है ये कहाँ का मुल्क में,
सत्य को हर हाल में करनी पडेगी खुदकुशी.

रोशनी बेशक न हो चारों तरफ मेरे मगर,
मैं अँधेरों का समथ॔न कर न सकता हूँ कभी.

ग़ज़ल

बन्द रहती हैं खिड़कियाँ अब तो.
घर में रहती हैं चुप्पियाँ अब तो.


हमने दुनिया से दोस्ती ली ली,
हमसे रूठी हैं नेकियाँ अब तो.


उफ ये कितना डरावना मंज़र,
बोझ लगती हैं बेटियाँ अब तो.

खो गये प्यार,दोस्ती-रिश्ते,
रह गयी हैं कहानियाँ अब तो.

अब न घोलो जहर हवाओं में,
हो चुकीं जर्द पत्तियाँ अब तो.

सिर्फ अपने दुखों को जाने हैं,
ये सियासत की कुर्सियाँ अब तो.

सबकी आँखों में सिर्फ गुस्सा है,
और हाथों में तख्तियाँ अब तो.

ग़ज़ल

जिग़र का ख़ूँ हुआ है.
मगर लब पर दुआ है.


धुआँ है आस्माँ पर,
ज़मीं पर कुछ हुआ है.

न ज़िन्दा हैं न मुर्दा,
ये किसकी बद्दुआ है.

सिमटकर रह गया हूँ,
मुझे किसने छुआ है.

सितमग़र भी रहें खुश,
फ़क़ीरों की दुआ है.

ग़ज़ल

तुम ज़रा यूँ ख़याल करते तो.
मुश्किलों से विसाल करते तो.


ज़िन्दगी और भी सरल होती,
इसको थोड़ा मुहाल करते तो.

मंज़िलों के निशाँ बता देते,
रास्तों से सवाल करते तो.

हार जाते घने अँधेरे भी,
कोशिशों को मशाल करते तो.

यूँ न होते उसूल बेइज्ज़त,
इनकी तुम देखभाल करते तो.