पूरे सात वर्ष अवसाद में रहने के पश्चात इस वर्ष इस ग़ज़ल से मेरे साहित्यकार / ग़ज़लकार की नयी पारी शुरू हुई. अपनी बुनावट में साधारण होने के बावज़ूद मेरे लिये इस ग़ज़ल के इस रूप में बहुत माइने हैं.-
ग़ज़ल-12
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पहले से बेहतर हूं मैं.
सन्डे है घर पर हूं मैं.
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दुनिया से वाबस्ता हूं,
दुनिया से वाबस्ता हूं,
आख़िरको शायर हूं मैं.
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बच्चे हैं तो मैं, मैं हूं,
बच्चे हैं तो मैं, मैं हूं,
उनकी खातिर घर हूं मैं.
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दुनिया जिससे दुनिया है,
वो ढाई आखर हूं मैं.
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जैसा चाहे वैसा कर,
अब तेरे दर पर हूं मैं.
26 टिप्पणियां:
बहुत ही बेहतर ग़ज़ल है
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बच्चे हैं तो मैं, मैं हूं,
उनकी खातिर घर हूं मैं.
nayee pari ki shuruaat ke liye dhero badhaayee is umda gazal se... aur is she'r pe puri tarah se khade hokar daad kubul karen... kya baat kahi hai aapne sidhe dil me utar gayee...
arsh
दुनिया जिससे दुनिया है,
वो ढाई आखर हूं मैं.
बहुत ही खुबसूरत से एहसासो मे ढली है आपकी रचना........इन पंक्तियो का जबाव नही ......अतिसुन्दर
पहले से बेहतर हूं मैं.
सन्डे है घर पर हूं मैं.
.waah, bahut badhiyaa
दुनिया जिससे दुनिया है,वो ढाई आखर हूं मैं
..जैसा चाहे वैसा कर,अब तेरे दर पर हूं मैं.
bahut sundar sanjeev bhai
जब पहली बार आपकी इस ग़ज़ल को पढ़ा था मैं "प्रयास" में तभी से कायल हो गया था....अहा!
wah wah, sanjeev ji,
दुनिया जिससे दुनिया है,
वो ढाई आखर हूं मैं.
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जैसा चाहे वैसा कर,
अब तेरे दर पर हूं मैं.
bahut khoob, badhai sweekaren.
जैसा चाहे वैसा कर,
अब तेरे दर पर हूं मैं.
ye line bahut pasand aaiye , gautam ji main bhi agra se hunn aur thoda bahut likhta hun , kabhi mere blog par padhariye
kapil
दुनिया जिससे दुनिया है,
वो ढाई आखर हूं मैं..
जैसा चाहे वैसा कर,
अब तेरे दर पर हूं मैं.
गज़ल तो सुंदर बनी है। और ये शुभ है कि आप अवसाद से बाहर आकर साहित्य-स्रुजन में जुट गये हैं। बधाई।
बहुत दिनों के बाद जब बाँध टूटता है, सारी फालतू चीज़ें बहा ले जाता है. यह गजल भी ऐसा ही कुछ कर गुज़री है. मैं भुक्तभोगी क्या, लती हूँ, इस लिए मुझे पता है छोटी बहर में अच्छे शेर निकालना कितनी टेढ़ी खीर है. गजल बहुत अच्छी तैयार ही है, अब तो तुम्हारा शुमार मैं उस्तादों में कर रहा हूँ. यार कुछ ही गिने-चुने नाम हैं जो वाकई लिख रहे वरना टाइम पास के दर्शन तो आम हैं. तुमसे अंतिम वार्ता वाले दिन ही गूगल टॉक लोड कर लिया था और उस दिन से अक्सर तथा रविवार को विशेष तौर पर इस ताक में रहा कि शायद.......
फिलहाल, रमजान अपने अंतिम पड़ाव पर है और मैं गत वर्षों की भांति इस वर्ष भी ५-६ के बाद आजाद. दरअसल बाहर, खानाबदोशी का जीवन गुजारने में बहुत सी चीज़ें छोड़नी पड़ती हैं. वैसे भी मेरी निगाह में धर्म का अर्थ इंसानियत है, दाढ़ी, टोपी, तिलक, चोटी, ५ टाइम, २ टाइम से मैं मुक्त हूँ.
शक्रवार से गुरुवार तक नेट से अनुपस्थित र्होंगा, घर, ईद, बच्चे और मैं. ईद और पूजा की अभी से एडवांस मुबारकबाद.
बच्चे हैं तो मैं, मैं हूं,
उनकी खातिर घर हूं मैं.
जैसा चाहे वैसा कर,
अब तेरे दर पर हूं मैं.
Kya baat hai.Yun hi likhte rahiye.
नमस्कार संजीव जी,
वाह बेहतरीन ग़ज़ल ..................
उम्दा मतला, हर शेर अपने हिस्से की कहानी बखूबी बयान कर रहा है.
बच्चे हैं तो मैं, मैं हूं,
उनकी खातिर घर हूं मैं.
बहुत प्यारी ग़ज़ल .....
उतने ही अच्छे भाव
और....
आपके मन की उज्वल भावनाएं
हर हाल में काबिले-तारीफ़ हैं
भगवान् से आपकी बेहतरी की कामनाओं के साथ
---मुफलिस---
दुनिया जिससे दुनिया है,
वो ढाई आखर हूं मैं.
वाह...
इतने छोटे बहर पे इतनी खूबसूरत ग़ज़ल..किसी हिरन के प्यारे छौने जैसी..क्या बात है..
बच्चे हैं तो मैं, मैं हूं,
उनकी खातिर घर हूं मैं.
bबहुत लाजवाब गज़ल है बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें
bahut khoobsurat ghazal hai ..... Sunday din bhar phir yaad aayegi aapki ghazal ..
"बच्चे हैं तो मैं, मैं हूं,
उनकी खातिर घर हूं मैं|
जैसा चाहे वैसा कर,
अब तेरे दर पर हूं मैं|"
हर शेर लाजवाब...उम्दा ग़ज़ल....बहुत बहुत बधाई....
CHOTE BAHAR MEIN LIKHI AAPKI GAZAL BAHOOT SUNDAR HAI ..... ROJMARRA KI JINDAGI SE JUDE SHER HAIN SAB KE SAB ...... SANJEEV JI BAHOOT BADHIYA ...
बेहतर ग़ज़ल , और बेहतर वापसी
अपनी अपनी डगर
सुनकर ही बेहतर हूँ मैं
सीधी सरल भाषा में अच्छी गज़ल
छोटे बहर में रची आपकी ये ग़ज़ल पूर्ण संजीदगी से अपना कर गई.
इतनी बेहतरीन ग़ज़ल से आपका पुनर्गाज़ बहुत ही शानदार रहा और हम इसका स्वागत करते हैं.......
हार्दिक आभार.
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
गौतम जी आपकी गजल का एक एक शेर काबिले तारीफ है आपको उस्ताद की उपाधि से नवाज़ा जाना बहुत सही है तो "उस्ताद जी" आपके शेर बिल्कुल मेरे मायने के शेर है. आपने छोटे छोटे शब्दो मै काफी गहरी बात कही है.
आपका अपना ही.
दुनिया से वाबस्ता हूं,
आख़िरको शायर हूं मैं.
बच्चे हैं तो मैं, मैं हूं,
उनकी खातिर घर हूं मैं.
संजीव जी,
अपने बहुत ही बेहतर ग़ज़ल लिखी है .दिल से बधाई!!
दुनिया जिससे दुनिया है,
वो ढाई आखर हूं मैं.
sundar bunkari pr badhaaee
बहुत बढ़िया। ल्या बात है संजीव।
जैसा चाहे वैसा कर,
अब तेरे दर पर हूं मैं.nice
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