मंगलवार, अक्तूबर 27, 2009

कश्मीर में तीन दिन भाग-3

गतांक से आगे---
हमें बेसब्री से प्रसिद्ध जवाहर सुरंग का इंतज़ार था. एशिया की सबसे लंबी सडक सुरंग के बारे में बचपन से ही सुन रखा था. कई जगह बीच में सडक पर shed बने हुथे थे. मैंने उनके बारे में शाहजहां भाईजान से पूछा तो उन्होंने बताया कि ये Avalanch zone है. ठंड में यहां पर ऊंची पहाडियों से बर्फ़ लुढकती हुई आती है और जिससे दुर्घटना हो जाती है. ऐसी जगहों को चिह्नित करके वहां ये शेड्स बना दिये गये हैं, जिससे यात्री और वाहन सुरक्षित रहें. आगे बढते हुए हम लोग जवाहर सुरंग के प्रवेश द्वार पर आ पहुंचे. पीर पंजाल की पहाडियों में बनी हुई जवाहर सुरंग वास्तव में जम्मू एवं कश्मीर के बीच सीमा का काम करती है. 2.5 किमी0 लम्बी जवाहर सुरंग के आस-पास सेना के अत्यधिक जवानों की उपस्थिति यह दर्शा रही थी कि यह सुरंग कितनी महत्वपूर्ण है. जवाहर सुरंग से बाहर आते ही एक और आश्चर्य मेरा इंतज़ार कर रहा था. मेरी सोच थी कि कश्मीर की सडकें पर्वतीय सडकों की तरह घुमावदार होंगी, लेकिन यहां तो सपाट और सीधी सडक बिलकुल मैदानी इलाकों जैसी. जवाहर सुरंग से कश्मीर मात्र 80किमी0 दूर रह गया था. शाम के पांच बज गये थे लेकिन सीधी-सपाट सडक होने की वज़ह से हम तेज़ी से अपनी मंज़िल की ओर बढ रहे थे. जवाहर सुरंग से श्रीनगर तक हर गांव में 10-12 और रास्ते में थोडी-थोडी दूर पर 4से5 फ़ौजी जवानों की मौज़ूदगी वातावरण में ख़ौफ़ पैदा कर रही थी. श्रीनगर से थोडा पहले पामपुर क़स्बा केसर की खेती के लिये मशहूर है. देश-विदेश तक यहां से केसर की सप्लाई ख़ूब होती है. हम लोगों ने भी असली केसर लेने की इच्छा भाईजान से व्यक्त की, लेकिन कम से कम 2800रू0प्रति 10 ग्राम के दाम सुनकर इरादा बदल दिया. लगभग 7बजे हम लोग श्रीनगर के बाहरी इलाके में पहुंच चुके थे. यहां भी आगरा जैसा जाम सडकों पर पूरी शिद्दत से उपस्थित था. वाकई पूरा हिन्दुस्तान इस मामले में एक है. शाहजहां भाईजान से मित्रता और प्रगाढ हो चुकी थी. उनका घर हालांकि श्रीनगर में घुसते ही था लेकिन वो हमें डल झील के किनारे छोडकर और अपने परिचित की हाऊसबोट भी बुक करवाकर आये.किराया भी बेहद मुफ़ीद मात्र 700रू0 प्रतिदिन. हाऊस बोट के मालिक मो0एज़ाज से रात्रि का भोजन हमने बोट पर ही मंगा लिया और एजाज भाई को भी अपने साथ ही बैठा लिया. भोजन करते हुए एजाज भाई से बातचीत चलती रही. एजाज भाई ने बताया कि पूरी डल झील में लगभग 700 हाऊसबोट हैं. हमारा ये काम पीढियों पुराना है. मेरे दादा और परदादा यही काम करते थे. एक हाऊसबोट की उम्र तक़रीबन 50से60 साल होती है. कुछ संवेदनशील मुद्दों पर भी हमने उनके मन की बात जाननी चाही क्योंकि कश्मीर के बारे में जानने बहुत इच्छा थी हमारी. एजाज भाई ने बताया कि 'सर आज का कश्मीर तो बेहद खुशहाल है. पिछले 9-10 सालों में बहुत कुछ बदल गया है. सन 2000 के पहले तो यहां के अधिकतर होटलों पर फ़ौजों का क़ब्ज़ा था. शाम 6 बजते ही कर्फ़्यू लग जाता था. उस समय आतंकी और फ़ौज़ यहां के लोगों पर बहुत ज़ुल्म करते थे.' एजाज भाई ने हलांकि स्थानीय युवाओं के आंतकी बनने से इंकार तो नहीं किया लेकिन कहा कि,'सर ये लोग भी क्या करें . आप ही बतायें कि सिवाय पर्टयन के यहां के लोगों पर रोज़गार है? आतंकवाद का मुख्य कारण ही यहां की गरीबी है. यहां श्रीनगर शहर में लोगों पर फिर भी काम है लेकिन यहां के गांवों में बेहद गरीबी है. पाकिस्तान की शह, पैसों का लालच और कुछ हद तक फ़ौज़ों की दमनकारी नीतियां युवकों को आतंकी बनने पर मज़बूर कर देती हैं. महज़ 8से 10हज़ार रू0 के लिये लोग आतंकी बनने के लिये तैयार थे. फ़ौज़ में भ्रष्टाचार भी इसकी मुख्य वज़ह है. नहें तो आप ही बतायें 10से 15 लाख फ़ौज़, जिसमें बार्डर पर बी0एस0एफ0, उसके पीछे इंडियन आर्मी और अन्दर की सुरक्षा सी0आर0पी0एफ0 व जम्मू-कश्मीर पुलिस के पास हो तो बिना भ्रष्टाचार के क्या ये संभव है कि बार्डर पार से आतंकी आ जायें. सर मेरे कुछ रिश्तेदार बार्डर पार पाक अधिकृत कश्मीर में भी हैं. वो तो हमसे 50साल पीछे चल रहे हैं. वहां के हालात तो बद से बदतर हैं.' स्थानीय नेताओं से भी एजाज भाई ख़ासे नाराज़ थे. उनका कहना था कि, 'सारी समस्याओं के पीछे कहीं न कहीं ये नेता लोग भी हैं. अपनी दुकान चलाने के लिये ये कुछ भी कर सकते जाते हैं. अगर महीने में लाल चौक पर कोई घटना न घटे तो कोई न कोई नेता खुद ही साज़िश रच लेता है. सब मिले हुए हैं.' मीडुया वालों से भी उन्हें शिकायत थी कि, 'पता नहीं क्या दिखाते और छापते रहते हैं. सर आप ही बतायें क्या आपको लगता है कि अब कश्मेर कहीं से भी अशांत है. मुझे उसकी बातें सही लगी कि गरीबी और लाचारी ही अपने पीछे आतंकवाद और नक्सलवाद लेकर आती हैं. हमने एजाज भाई स्वादिष्ट खाने के लिये धन्यवाद दिया और सोने के लिये विदा मांगी.........
क्रमश ...........

रविवार, अक्तूबर 25, 2009

कश्मीर में तीन दिन भाग-2

गतांक से आगे---
सफ़र की शुरूआत होने के साथ-साथ बातचीत का दौर भी शुरू हो गया. सडक पर लगे मील के पत्थर पर देखा तो कश्मीर अभी 300किमी0 दूर था. जम्मू शहर पार करते ही पहाडी रास्ता शुरू हो गया. मौसम बेहद खुशनुमा था. थोडी देर बाद ही चिनाब हमारे साथ-साथ चलने लगी. मैं इस बात से बेहद रोमांचित था कि मैं उस महान सिंधु नदी से भी ज़्यादा दूर नहीं था जहां मोहनजोदडो जैसी सभ्यता विकसित हुई थी. बातचीत में सामने आया कि गाडी के ड्राइवर ही गाडी के मालिक हैं शाहजहां नाम था उनका. हम उम्र ही थे, लगभग उंतीस-तीस के क़रीब. बेहद ज़िन्दादिल और यारबास किस्म के व्यक्ति लगे. थोडी देर में ही शाहजहां, शाहजहां भाईजान की भूमिका में रूपांतरित हो चुके थे. एक बडा मज़ेदार किस्सा उन्होंने बताया कि क्लास में जब भी ये पूछा जाता था कि ताज़महल किसने बनाया था तो हमेशा मेरा जवाब होता था कि मैंने. अजय भी अपनी कश्मीर की जानकारियों के साथ बातचीत में शामिल था. मैं उसकी जानकारियों से हैरान था. समूचे उत्तर भारत के पहाडी ,रास्ते पर्यटन के अड्डे, रुकने और खाने के सस्ते से सस्ते और मंहगे से मंहगे स्थान. गली नुक्कड के प्रसिद्ध खोमचे वाले. सब कुछ.सारे रास्ते भर उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश और हिमांचल की जानकारियों का ख़ज़ाना भरते रहे. रासते में हमने एक क़स्बे में छोटी सी दुकान पर चाय और पूडियां खायीं. शाहजहां भाई ने आगे रास्ते में एक मोड पर बताया कि वैष्णो देवी का मन्दिर यहां से ज़्यादा दूर नहीं है. मात्र 8किमी0 ही दूर है. लेकिन अफसोस समयाभाव कहिये या माता का बुलावा हम वहां नहीं जा सके. लगभग चार घंटे की यात्रा में हम आधी दूरी तय कर चुके थे. सामने दूर पहाडी पर निर्माण कार्य चल रहा था. शाहजहां भाई ने बताया कि ये विवादित बगलिहार परियोजना है. वहां एक ढाबे पर हमने कर रोकी पता चला कि वहां का राज़मा-चावल बहुत मशहूर है. दोपहर का भोजन हमने वहीं ग्रहण किया. ग्रहण क्या किया एक इतिहास का हिस्सा बने. जहां हम बैठे हुए थे ठीक उसके पीछे बगलिहार परियोजना का विहंगम दृश्य था. अद्भुत नज़ारा था. निर्माणाधीन बांध का सामने का विशाल हिस्सा धूप में चमक रहा था. बांध के पीछे चिनाब की विशाल जलराशि थी. मन था कि पूरा दिन वहीं गुज़ारा जाय. ख़ैर थोडी देर विश्राम कर आगे की यात्रा शुरू हुई. अब वैचारिक स्तर पर थोडा और खुलते हुए हमने कश्मीर पर शाहजहां भाई की राय जाननी चाही. ये जानकर बेहद आश्चर्य हुआ कि पाकिस्तान के प्रति उअनके मन में काफ़ी आक्रोश था. हालांकि पाक अधिकृत को बार-बार आज़ाद कश्मीर ही कहा उन्होंने. हमारे टोकने पर उन्होंने ख़ेद व्यक्त किया कि उनका वह मतलब नहीं था. उन्होंने बतया कि पाक अधिकृत कश्मीर की तुलना में यहां का जीवन स्तर बहुत उन्नत है. चिनाब के साथ-साथ हमारी यात्रा चलती रही. जैसे-जैसे हम आगे को बढते गये वातावरण की ख़ूबसूरती में इज़ाफ़ा होता गया. एक परिवर्तन और साफ दिखाये दिया कि जैसे-जैसे कश्मीर पास आता गया सडक के किनारे क़स्बों में हिन्दू और सिखों के स्थान पर मुसलमानों की आबादी में इज़ाफ़ा होता गया.
क्रमश:-

गुरुवार, अक्तूबर 22, 2009

यात्रा-1

अभी कुछ दिन पहले दीपावली के आस-पास मेरे एक मित्र डा. नवनीत, कश्मीर होकर आये. डा. नवनीत साहित्यकार नहीं हैं, पेशे से एक इंस्टीट्यूट के निदेशक हैं. वापस आने पर जब उनसे मुलाकात हुई तो उनकी यात्रा की जानकारी हुई. कश्मीर पर भी चर्चा हुई. उसी चर्चा से यह विचार आया कि उनके अनुभवों से आप सबको भी साझा किया जाय. मेरे अनुरोध पर भाई नवनीत ने यात्रा के अनुभव को पूरी शिद्दत से लिपिबद्ध किया है. मैं सिर्फ़ प्रस्तुतकर्त्ता की भूमिका में हूं. हमेशा की तरह अपनी बेशकीमती राय से ज़रूर अवगत करायें-
कश्मीर में तीन दिन---------
11 अक्टूबर,2009 को रात के कोई 9-30 बजे का वक़्त होगा. भोजन करने के बाद मैं बिस्तर पर 'अमर उजाला' की एक पुरानी प्रति में शशांक शेखर का कश्मीर पर एक आलेख पढ रहा था. सहसा मेरे मन में एक विचार कौंधा कि क्यों न कश्मीर की यात्रा कर ली जाय. मैंने तुरंत अपने मित्र डा. अजय विक्रम सिंह को फोन लगाया और आलेख के बारे में बताते हुए अपनी इच्छा व्यक्त की. वो फौरन तैयार हो गये और आनन फानन में हमने तुरंत 13 तारीख को ट्रेन से जाने एवं 16 को विमान से वापस आने का रिजर्बेशन करा लिया. आगरा से दिल्ली का रिजर्वेशन नहीं कराया था. आगरा से 'स्वर्ण जयंती' के साधारण डिब्बे में ज़्यादा भीड थी सो हम टी0टी0 से पूछकर स्लीपर मॆं सवार हो गये. बाद में टी0टी0 के सुर ही बदल गये. वो तो ज़्यादा पेनल्टी मांगने लगा. उसके और भी साथी आ गये. ऐसा लग रहा था कि जैसे अवैध वसूली का पूरा गैंग हो. ख़ैर अजय की बडी कोशिशों से थोडा सा डिफ़रेंस शुल्क देकर जान बची. शाम 5-30पर दिल्ली पहुंचे. राजेन्द्र नगर में अजय का कुछ काम निपटाते हुए नई दिल्ली से 'उत्तर सम्पर्क क्रांति' में सवार हुए. सामने की सीट पर एक सरदार जी थे. उनसे बातचीत होने लगी . सरदार जी ने सुझाव दिया कि ऊधमपुर के बजाय हम लोग जम्मूतवी उतरें क्योंकि ऊधमपुर से टैक्सी की अच्छी सुविधा उपलब्ध नहीं है. सुबह क़रीब 6बजे कठुआ के आस-पास मेरी नींद खुली मोबाइल पर टाइम देखा तो पता चला कि टाटा इंडिकाम के अलावा सारे मोबाइल ने काम करना बन्द कर दिया है. अजय ने जब अपने मोबाइल से नेटवर्क सर्च किया तो अचंभा हुआ कि पाकिस्तान के कुछ मोबाइल आपरेटर के सिग्नल भी हमारा फोन पकड रहा था. याद के तौर पर कैमरे से फोटो लेकर हमने सुरक्षित रख लिया. करीब 8बजे सुबह हम लोग जम्मूतवी उतरे. वहां उतरकर पूछ्ताछ की तो पता चला कि श्रीनगर जाने के लिये टैक्सी बस स्टेशन से मिलेगी. बस स्टेशन वहां से क़रीब 8 किमी0 दूर था. ख़ैर बस स्टेशन पहुचे. सबसे पहले तो एक होटल पर आलू के परांठे और चाय का नाश्ता लिया फिर श्रीनगर के लिये टैक्सी की खोज शुरू हुई. हम सोच ही रहे थे कि कौन सी टैक्सी ले जाय एक सरदार जी से फिर मुलाकात हुई, उन्होंने आफ़र किया कि एक सेंट्रो श्रीनगर तक जा रही है, किराया टैक्सी के बराबर ही लगेगा हम सहमत तहों तो चल सकते हैं. ये सोचकर कि पहाडी रास्ते का सफ़र कार में अच्छा रहेगा हम दोनों सरदार जी के साथ हो लिये. कार में ड्राइवर के अलावा चार लोग और थे. आगे की सीट पर वही सरदार जी, पीछे हम दोनों के अलावा एक काश्मीरी और था......
क्रमश: शीघ्र ही -----

बुधवार, अक्तूबर 07, 2009

ग़ज़ल















ये ग़ज़ल भाई गौतम राजरिशी के अच्छे स्वास्थ्य की कामना, उनकी जिजीविषा, उनके अदम्य हौसले, उनकी अटूट देशभक्ति, उनके निर्मल मन, उनके सच्चे साहित्यकार और प्यारी भतीजी तनया को समर्पित है-

ग़ज़ल
पांव के छाले या अपना रास्ता देखूं.
मुश्किलें देखूं या अपना हौसला देखूं.
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उसमें सब तो हैं वफ़ा, ईमान, ख़ुद्दारी,
उसमें अब इनके अलावा और क्या देखूं.
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काश ये बारूद के बादल हटें नभ से,
फूल, तितली, रंगों का इक सिलसिला देखूं.
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पास में संवेदनाएं तक नहीं जिनके,
उन अमीरों की तरफ़ मैं क्यों भला देखूं.
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मेरा पहला और अंतिम ख़्वाब बस ये है,
घर अंधेरों का सदा जलता हुआ देखूं.

गुरुवार, अक्तूबर 01, 2009

इधर कुछ दिनों से मन अच्छा नहीं रहा. कम्प्यूटर पर आवाजाही कम ही हुई उस पर गौतम भाई का समाचार मन को उदास किये रहा. कल सुबह जैसे ही हिन्दुस्तान अखबार पर निगाह पडी तो पहली खुशी मिली. सम्पादकीय पृष्ठ पर नई सडक वाले भाई रवीश जी के ब्लाग वार्ता कालम में गौतम राजरिशी के ब्लाग पर आलेख पढकर आनन्द आ गया. जैसी ही गौतम भाई को फोन पर इसकी सूचना दी तो दूसरी खुशी यह समाचार जानकर हुई कि भाई की तबीयत पहले से काफी बेहतर है और अब थोडा टहल भी रहे हैं. परम पिता को लाख-लाख धन्यवाद......
अब एक अजीब संयोग की चर्चा.... पिछले वर्ष निर्वाचन की ड्यूटी के दौरान निर्वाचन सूचियों से माथापच्ची के समय बडा अज़ब संयोग देखने को मिला कि जैसे हम तीन भाई राजीव, संजीव और प्रमोद है वैसे ही दूसरे राजीव, संजीव और प्रमोद हैं. मेरा दोस्त राहुल और उसका भाई रोहित वैसे ही वहां राहुल और उसका भाई रोहित ही है. ऐसे तमाम उदाहरण देखने को मिले. कल जब आफिस में अपने वरिष्ठ साथी का परिचय पत्र देखा तो उनके पिता का नाम श्री लालमणि था. निर्वाचन ड्यूटी के समय इसी नाम के एक निर्वाचक के पिताजी का नाम रामजतन था. मैंने उनसे पूछा कि उनके बाबा का क्या नाम था वो बोले राम जतन. मैं हतप्रभ था.... आदरणीय श्री राजेश रेड्डी जी का ये शेर कानों में गूंजने लगा--

दिल के बहुत करीब निगाहों से दूर है.
दुनिया में एक और भी दुनिया ज़रूर है.