गतांक से आगे---
सफ़र की शुरूआत होने के साथ-साथ बातचीत का दौर भी शुरू हो गया. सडक पर लगे मील के पत्थर पर देखा तो कश्मीर अभी 300किमी0 दूर था. जम्मू शहर पार करते ही पहाडी रास्ता शुरू हो गया. मौसम बेहद खुशनुमा था. थोडी देर बाद ही चिनाब हमारे साथ-साथ चलने लगी. मैं इस बात से बेहद रोमांचित था कि मैं उस महान सिंधु नदी से भी ज़्यादा दूर नहीं था जहां मोहनजोदडो जैसी सभ्यता विकसित हुई थी. बातचीत में सामने आया कि गाडी के ड्राइवर ही गाडी के मालिक हैं शाहजहां नाम था उनका. हम उम्र ही थे, लगभग उंतीस-तीस के क़रीब. बेहद ज़िन्दादिल और यारबास किस्म के व्यक्ति लगे. थोडी देर में ही शाहजहां, शाहजहां भाईजान की भूमिका में रूपांतरित हो चुके थे. एक बडा मज़ेदार किस्सा उन्होंने बताया कि क्लास में जब भी ये पूछा जाता था कि ताज़महल किसने बनाया था तो हमेशा मेरा जवाब होता था कि मैंने. अजय भी अपनी कश्मीर की जानकारियों के साथ बातचीत में शामिल था. मैं उसकी जानकारियों से हैरान था. समूचे उत्तर भारत के पहाडी ,रास्ते पर्यटन के अड्डे, रुकने और खाने के सस्ते से सस्ते और मंहगे से मंहगे स्थान. गली नुक्कड के प्रसिद्ध खोमचे वाले. सब कुछ.सारे रास्ते भर उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश और हिमांचल की जानकारियों का ख़ज़ाना भरते रहे. रासते में हमने एक क़स्बे में छोटी सी दुकान पर चाय और पूडियां खायीं. शाहजहां भाई ने आगे रास्ते में एक मोड पर बताया कि वैष्णो देवी का मन्दिर यहां से ज़्यादा दूर नहीं है. मात्र 8किमी0 ही दूर है. लेकिन अफसोस समयाभाव कहिये या माता का बुलावा हम वहां नहीं जा सके. लगभग चार घंटे की यात्रा में हम आधी दूरी तय कर चुके थे. सामने दूर पहाडी पर निर्माण कार्य चल रहा था. शाहजहां भाई ने बताया कि ये विवादित बगलिहार परियोजना है. वहां एक ढाबे पर हमने कर रोकी पता चला कि वहां का राज़मा-चावल बहुत मशहूर है. दोपहर का भोजन हमने वहीं ग्रहण किया. ग्रहण क्या किया एक इतिहास का हिस्सा बने. जहां हम बैठे हुए थे ठीक उसके पीछे बगलिहार परियोजना का विहंगम दृश्य था. अद्भुत नज़ारा था. निर्माणाधीन बांध का सामने का विशाल हिस्सा धूप में चमक रहा था. बांध के पीछे चिनाब की विशाल जलराशि थी. मन था कि पूरा दिन वहीं गुज़ारा जाय. ख़ैर थोडी देर विश्राम कर आगे की यात्रा शुरू हुई. अब वैचारिक स्तर पर थोडा और खुलते हुए हमने कश्मीर पर शाहजहां भाई की राय जाननी चाही. ये जानकर बेहद आश्चर्य हुआ कि पाकिस्तान के प्रति उअनके मन में काफ़ी आक्रोश था. हालांकि पाक अधिकृत को बार-बार आज़ाद कश्मीर ही कहा उन्होंने. हमारे टोकने पर उन्होंने ख़ेद व्यक्त किया कि उनका वह मतलब नहीं था. उन्होंने बतया कि पाक अधिकृत कश्मीर की तुलना में यहां का जीवन स्तर बहुत उन्नत है. चिनाब के साथ-साथ हमारी यात्रा चलती रही. जैसे-जैसे हम आगे को बढते गये वातावरण की ख़ूबसूरती में इज़ाफ़ा होता गया. एक परिवर्तन और साफ दिखाये दिया कि जैसे-जैसे कश्मीर पास आता गया सडक के किनारे क़स्बों में हिन्दू और सिखों के स्थान पर मुसलमानों की आबादी में इज़ाफ़ा होता गया.
क्रमश:-
रविवार, अक्टूबर 25, 2009
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8 टिप्पणियां:
shukriya achchha laga ab tak ka vivran, bas chitron ki hi kuch kami rah gayi.
संजीव जी बहुत्त रोचक यात्रा संस्मरण है लगता है हम साक्षात सब कुछ देख रहे हैं शुभकामनायें
रोचकता बरकरार है। जहाँ के चावल-राजमे का विवरण है, वो "पीरा" नाम की जगह है।...और वहाँ के दो ढ़ाबे के बने चावल-राजमा का स्वाद वाकई अलौकिक है, इतना कि कई बार सेना द्वारा चार्टेड विमान उपलब्ध होने के बावजूद हममें से कई लोग महज उस राजमा-चावल को खाने के लिये सड़क द्वारा छुट्टी में घर जाना पसंद करते हैं।
जारी रखें....
रोचक वृतांत है. अगली कड़ी की प्रतीक्षा है..........
waah bahut hi sajeev chitran kiya hai
Goutam ji ne bhi raajma chawal ki taaref ki hai matlab waqayi kuch baat hai
वाह-वाह, मज़ा आ गया. अब तो पूरी यात्रा के संस्मरण एक ही किस्त में पढ़ लेने का लालच हो रहा है. अभी यह हाल है जब कश्मीर में सिर्फ दाखिल हुए हैं. संजीव, तुम्हारे अंदर रचनाकारों की एक पूरे श्रृंखला समाई हुई है--- कवि, कथाकार, निबंधकार, पर्यटन विशेषज्ञ ...& many more. आनन्द आ गया भाई, जल्दी पूरा करो.
दोनों ही अंक साथ साथ आज ही पढ़े हैं ......... रोचक विवरण है ..... चावल- राज्नमा तो जम्मू कश्मीर के वैसे भी मश हूर हैं ...... आपने अपनी लाजवाब शैली में रोचकता बनाए रखी है ........ लग रहा है आपके साथ हम भी इस सफ़र में हैं .......
यात्रा का वर्णन इतना रोचक है की ' पीरा ' के राजमा चावल खाने का और चिनाब के साथ साथ चलने का मन हो आया ,पढ़कर लगता है कि हम भी आपके साथ साथ यात्रा पर हैं ! अगले पडाव की बेसब्री से प्रतीक्षा है !
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